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आचारदिनकर (खण्ड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
तिथि ११
११
उ.
प्रथम द्वितीय
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सातवा आठवाँ नवा
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३२. अंग-तप -
मास-११, एकादशी-२२, आगाढ़ । अब अंग-तप की विधि ।
मास शुक्ल पक्ष
कृष्ण पक्ष तिथि बताते हैं -
शुक्ल पक्ष की एकादशी से प्रारम्भ कर ग्यारह मास की
तृतीय एकादशी कर यथाशक्ति तप करने चौथ से अंग-तप पूर्ण होता है।
पांचवाँ
छठवाँ --"-- श्री आचारांग आदि ग्यारह अंग का तप होने से यह अंग-तप
---- कहा जाता है। शुभ मास एवं
दसवाँ । ---- चन्द्रबल में शुक्ल एकादशी के दिन
ग्यारहवाँ यथाशक्ति एकासन, नीवि, आयम्बिल या उपवास द्वारा यह तप प्रारम्भ करे। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष की एकादशी को करते हुए ग्यारह मास में यह तप पूर्ण करे। इस तप का उद्यापन ज्ञानपंचमी-तप की भाँति ही करे। इस तप के करने से आगम के बोध की प्राप्ति होती है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है३३. संवत्सर-तप -
अब संवत्सर-तप की विधि बताते हैं - “सांवत्सरं तपः सावत्सरिके पाक्षिकेपि च।
चातुर्मासे कृतलोचे क्रियते तदुदीर्यते।।।।" ___ एक वर्ष में जो तप किया जाता है, वह संवत्सर-तप कहलाता है। उसमें पाक्षिक आलोचना के लिए हर एक चतुर्दशी को उपवास करे, अर्थात् बारह महीनों की चौबीस चतुर्दशी के उपवास करे तथा चातुर्मास की आलोचना के लिए तीन चौमासी को दो-दो उपवास करने से छः उपवास होते हैं तथा संवत्सरी की आलोचना के लिए संवत्सरी के तीन उपवास होते हैं - ये सब मिलकर तेंतीस उपवास करे। इस तप का उद्यापन पूर्व की भाँति ही करे। इस तप के करने से वर्ष में किए गए पापों का क्षय होता है।
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