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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 203 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करने पर जो पाप लगे हों, उनको दूर करने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। ___यहाँ प्रायश्चित्त-विधि में जो पाप प्रतिक्रमण द्वारा शोधनीय होते हैं, उन्हीं का प्रतिक्रमण होता है। अब निम्न गाथा के माध्यम से सब जीवों से क्षमापना करते “खामेमि सव्व जीवे ....................... एव महमालो." इन दोनो गाथाओं की व्याख्या यतिप्रतिक्रमणसूत्र के समान ही है। यह श्राद्ध- प्रतिक्रमणसूत्र की व्याख्या हैं। ___ यहाँ यति (साधु) एवं श्राद्ध (श्रावकादि) के प्रतिक्रमण सम्बन्धी सभी सूत्रों की व्याख्या की गई है, किन्तु ग्रन्थ-विस्तार के भय से सूत्रों से सम्बन्धित मुद्राओं का यहाँ विवेचन नहीं किया गया है। इस प्रकार प्रतिक्रमण-आवश्यक की यह विधि सम्पूर्ण होती है। अब कायोत्सर्ग-आवश्यक की व्याख्या करते हैं - काया की गति को हीन करना, अर्थात् काय के प्रति ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है- पूर्व के पापकर्मों का निःशेष रूप से घात करने के लिए, पाप की विशुद्धि के लिए, विघ्न का उपशमन करने के लिए तथा कभी-कभी देव (अरिहंत, सिद्ध आदि) की आराधना के लिए भी कायोत्सर्ग करते हैं। "मैं कायोत्सर्ग करता हूँ अथवा कायोत्सर्ग में स्थित होता हूँ"- यह कहकर निम्न सूत्र बोलें। "अन्नत्थ उससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलिए पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहि अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउसग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि तावकायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। भावार्थ - मैं कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा करता हूँ, उसमें निम्नलिखित आगारों के सिवाय दूसरे किसी भी कारण से मैं इस कायोत्सर्ग का भंग नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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