________________
आचारदिनकर (खण्ड-1 -8)
भावार्थ
201
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
यद्यपि श्रावक ( सावद्य आरम्भों में आसक्त होने के कारण ) बहुत कर्मों वाला होता है, तो भी इस आवश्यक (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ) द्वारा अल्प समय में दुःखों का अन्त करेगा, मोक्ष पाएगा। (विस्मरण हुए अतिचारों की आलोचना )
"आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमण काले । मूलगुण उत्तरगुणे, तं निदे तं च गरिहामि ।। ४२ ।। “
भावार्थ
मूलगुण ( पाँच अणुव्रत ) और उत्तरगुण ( तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत ) के विषय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना बहुत प्रकार की है, तथापि उन आलोचनाओं में से कोई आलोचना प्रतिक्रमण करते समय याद न आई हो, तो उसकी मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ ।
अब खड़े होकर निम्न गाथाएँ बोलें -
“तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स अब्भुट्ठिओमि आराहणाए, विरओम विराहणाए ।
तिविहेण पडिक्कंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं । । ४३ । । “
भावार्थ
मैं केवली भगवान् के कहे हुए श्रावकधर्म की आराधना के लिए तैयार हुआ हूँ और उसकी विराधना से विरत हुआ हूँ। मैं सब प्रकार के अतिचारों का मन, वचन और काया से प्रतिक्रमण करके पापों से निवृत्त होकर श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हूँ ।
Jain Education International
अब निम्न दो गाथा के माध्यम से क्रमशः चैत्यवंदना एवं गुरुवंदना की गई है -
" जावंति चेइआई उड्ढे अ अहे अ तिरिअ लोए अ । सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ।। ४४ ।। जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ।। ४५ ।। “
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only