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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 191 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि "इत्तो अणुव्वये पंचमम्मि, आयरिअमप्पसत्थम्मि। परिमाण परिच्छेए, इत्थ पमायप्पसंगेणं ।।१७।। धण धन्न खित्त वत्थू रूप सुवन्ने अ कुविअ परिमाणे। दुपए चउप्पयम्मि य, पडिक्कमे देवसि सव्वं ।।१८ ।।" भावार्थ - अब पाँचवें अणुव्रत के विषय में (लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ।) प्रमादवश अतृप्तिरूप, अथवा अप्रशस्त क्रोधादि भावों के उदय से परिग्रहव्रत में अतिचार लगे - ऐसा जो आचरण किया हो, तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ। धन (द्रव्य), धान्य (अन्न), क्षेत्र, वास्तु का (गृह आदि भूमि), सोना, चाँदी, कांस्य, ताम्र आदि द्विपद, अर्थात् दास-दासी आदि; चतुष्पद, अर्थात् गाय, भैंस, बैल, अश्व आदि - इन सबका परिमाण उल्लंघन करने से दिवस सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ। (छठवें व्रत के अतिचारों की आलोचना) “गमणस्स उ परिमाणे दिसासु उढे अहे य तिरियं च। बुड्डि सइअंतरद्धा पढमंमि, गुणव्वए निंदे ।।१६।।" भावार्थ - ___ अब मैं पहले गुणव्रत दिक्परिमाणव्रत के अतिचारों की आलोचना करता हूँ। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - १. ऊर्ध्वदिशा में जाने का परिमाण लांघने से २. तिर्यक्, अर्थात् चारों दिशाओं तथा चारों विदिशाओं में जाने का परिमाण लांघने से ३. अधोदिशा में जाने का परिमाण लांघने से ४. क्षेत्र का परिमाण बढ़ जाने से, जैसे आठों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक आने- जाने का नियम करने के बाद आवश्यकता पड़ने पर एक दिशा में पचास योजन तक गया हो तथा दूसरी दिशा में डेढ़ सौ योजन तक जाए, तो इस व्रत में अतिचार लगता हैं, अर्थात् एक तरफ के नियमित क्षेत्र-प्रमाण को घटाकर दूसरी तरफ उतना क्षेत्र बढ़ाकर वहाँ तक जाए, तो इस व्रत में अतिचार लगता है। ५. क्षेत्र का परिमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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