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________________ ............ आचारदिनकर (खण्ड-४) 163 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ - मैं स्वयं मैथुन का सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से मैथुन का सेवन नहीं करवाऊंगा और मैथुन का सेवन करते हुए दूसरे लोगो की अनुमोदना भी नहीं करूंगा। __“एस खलु मेहुणस्स वेरमणे" भावार्थ - निश्चय से मैथुन-विरमणव्रत - “हिए सुहे ..... विहरामि" इस मूल पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत के अनुसार ही है। "चउत्थे भंते महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं" भावार्थ - हे भगवन् ! चौथे महाव्रत में समस्त प्रकार के मैथुन-सेवन का परित्याग करने के लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ। पांचवाँ महाव्रत - ___"अहावरे पंचमे भंते ! महब्बए परिग्गहाओ वेरमणं सव्वं भंते! परिग्गहं पच्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हेज्जा नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हावेज्जा, परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।" भावार्थ - हे भगवन् ! भगवान् ने अन्य पाँचवें महाव्रत में सर्वप्रकार के परिग्रह का त्याग करना बतलाया है, इसलिए हे भगवन्! समग्र परिग्रह का मैं निषेध करता हूँ। वह अल्प मूल्य वाला या बहुत मूल्य वाला, परिमाण से छोटा या परिमाण से बड़ा, सजीव या अजीव वस्तु के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरे किसी से परिग्रह ग्रहण नहीं करवाऊंगा, परिग्रह को ग्रहण करते हुए अन्य को भी अच्छा नहीं मानूंगा। जीवन-पर्यन्त मन, वचन, कायारूप त्रिविध योग से परिग्रह का ग्रहण करूं नहीं, करवाऊं नहीं और परिग्रह को ग्रहण करते हुए अन्य को भी अच्छा मानूं नहीं - इस प्रकार त्रिविध करण से हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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