SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 72 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सप्तमी का प्रयोग किया गया है। कुछ लोगों ने इसे द्वितीय विभक्ति के रूप में भी माना है। देवनागसुवर्णकिन्नरगणस्सब्भूयभावच्चिए - देव - वैमानिकदेव, नाग - नाग का उपलक्षण होने से, इन्हें नागकुमार कहा जाता है। यह भवनपतिदेव का एक प्रकार है। सुवर्ण - उज्ज्वल वर्ण होने से इन्हें सुपर्णकुमार कहा जाता है, यह ज्योतिष्कदेव का एक प्रकार है। किन्नर - किन्नर का उपलक्षण होने से इन्हें किन्नर कहा जाता है। यह व्यंतर जाति के देवों का एक प्रकार है। सब्भूअ - स्वाभाविक विशिष्ट परिणामों द्वारा अर्चित-पूजित। जिस जिनोक्त-सिद्धान्त में लोक का ज्ञान रहा हुआ है, जो स्थिरीभूत है तथा तीनों लोकों के मनुष्य, असुर, देव, नारक आदि प्राणीमात्र एवं सकल पदार्थ जिनोक्त- सिद्धांत में ही युक्ति एवं प्रमाणपूर्वक वर्णित हैं- ऐसा यह शाश्वतधर्म उन्नति को प्राप्त होकर एकान्तवाद पर विजय प्राप्त करे और जिससे चारित्ररूपी धर्म की भी प्रकृष्ट रूप से वृद्धि हो। “धर्म की प्रकृष्ट रूप से वृद्धि हो"- इस कथन का चारित्रधर्म की भावना को दृढ़ करने के उद्देश्य से पुनः कथन किया गया है। शेष भावार्थ पूर्ववत् है। अब सिद्धस्तव की व्याख्या करते हैं। सर्वस्तवों के अन्त में सर्वसिद्धिदायक सिद्धों की स्तुति की गई है। परमार्थ से जगत्वंद्य अरहंत परमात्मा भी सिद्ध हैं, क्योंकि वे भी सदैव काया में विचरण नहीं करते हैं। “सिद्धाणं बुद्धाणं, पारगयाणं परंपरगयाणं। लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं ।।१।। जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमंसति। तं देवदेव महियं, सिरसा वंदे महावीरं ।।२।। इक्को वि नमुक्कारो, जिनवर सहस्स वद्धमाणस्स। संसार सागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा।।३।। उज्जिंत सेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स। तं धम्म चक्कवटिं, अरिट्ठनेमिं नमसामि।।४।। चत्तारि अट्ठदस दो अ, वंदिया जिणवरा चउव्वीसं परमट्ठनिट्ठिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।५।। भावार्थ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy