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आचारदिनकर (खण्ड-४) 62 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
बोहिदयाणं - भव्य जीवों को बोधज्ञान या सम्यक्त्व की प्राप्ति कराने के कारण उन्हें बोधिदाता कहा गया है।
धम्मदयाणं - प्रभावशाली दृष्टान्तों के माध्यम से प्राणियों को निर्मल बुद्धि प्रदान करने के कारण उन्हें धर्म का दाता कहा गया है।
धम्मदेसयाणं - दसविध (यतिधर्म) का उपदेश देने के कारण उन्हें धर्मोपदेशक कहा गया है।
धम्मनायगाणं - धर्म का प्रसार एवं रक्षण करने के कारण उन्हें धर्म का नायक कहा गया है।
धम्मसारहीणं - मोक्ष-गमन में (साधनभूत) धर्मरूपी रथ के सुख-संचरण में (निर्विघ्न संचरण में) सारथी के समान सहायक होने के कारण उन्हें धर्म का सारथी कहा गया है।
धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टीणं - ऐसा धर्म जो श्रेष्ठ है, प्रधान है तथा चार गतियों को अन्त करने वाला है, उस धर्म के चक्रवर्ती एवं विश्वाधीश होने के कारण उन्हें श्रेष्ठ धर्म के चतुरंत चक्रवर्ती कहा गया है।
अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं - ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण से अनावृत्त श्रेष्ठज्ञान एवं दर्शन को अस्खलित रूप से धारण करने के कारण, उन्हें अप्रतिहत केवलज्ञान-दर्शन का धारक कहा गया है।
यहाँ श्रेष्ठज्ञान केवलज्ञान का तथा श्रेष्ठदर्शन केवलदर्शन, अर्थात् जगत् के दर्शन का सूचक है।
. वियट्टछउमाणं - छद्मस्थ अवस्थारूप ज्ञानावरण आदि आवृत्तों से रहित होने के कारण उन्हें छद्मस्थ अवस्था से रहित कहा गया
जिणाणं - रागादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के कारण उन्हें जिन कहा गया है।
जायवाणं - भक्तों को राग आदि शत्रुओं पर विजय दिलवाने के कारण उन्हें जीतने वाले कहा गया है।
तिणाणं - स्वयं संसार-सागर से पार हो चुके हैं, इसलिए उन्हें तीर्ण कहा गया है।
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