________________
त्रिविध साधना - मार्ग
२३
आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्म-स्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का तत्त्व स्वीकृत ही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधना-मार्ग के विधान में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाश्चात्त्य विचारक भी एकमत हैं । तुलनात्मक रूप में उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है
--
जैज-वर्शन
बौद्ध-वर्शन
गीता
पाश्चात्त्य दर्शन
Know Thyself
Accept Thyself Be Thyself
साधन त्रय का परस्पर सम्बन्ध
-जैन आचार्यों ने नैतिक साधना के लिए इन तीनों साधना - मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है । उनके अनुसार नैतिक साधना की पूर्णता त्रिविध साधनापथ के समग्र परिपालन में ही सम्भव है । जैन-विचारक तीनों के समवेत से ही मुक्ति मानते हैं । उनके अनुसार न अकेला ज्ञान, न अकेला कर्म और न अकेली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है । जब कि कुछ भारतीय विचारकों ने इनमें से किसी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान लिया है । आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन- दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिता में नहीं पड़ते हैं । उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना में ही मोक्ष - सिद्धि संभव है । इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष या नैतिक साध्य की प्राप्ति सम्भव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं है उसका आचरण सम्यक् नहीं होता और सम्यक् आचरण के अभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं हुआ जाता है और जो आसक्ति से मुक्त नहीं उसका निर्वाण या मोक्ष नहीं होता ।" इस प्रकार शास्त्रकार यह स्पष्ट तीनों की एक साथ स्वीकार किया गया
कर देता है कि निर्वाण या नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के आवश्यकता है । वस्तुतः नैतिक साध्य के रूप में जिस है वह चेतना के किसी एक पक्ष की पूर्णता नहीं, वरन् तीनों पक्षों की पूर्णता है और इसके लिए साधना के तीनों पक्ष आवश्यक हैं ।
सम्यग्ज्ञान
सम्यग्दर्शन
सम्यक् चारित्र
उपनिषद्
ज्ञान,
परिप्रश्न मनन
प्रज्ञा
श्रद्धा, चित्त, समाधि श्रद्धा, प्रणिपात श्रवण शील, वीर्य कर्म, सेवा निदिध्यासन
Jain Education International
लिए इन पूर्णता को
यद्यपि नैतिक साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र या शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा श्रद्धा, ज्ञान और कर्म तीनों आवश्यक हैं, लेकिन इनमें साधना की दृष्टि से एक पूर्वापरता का क्रम भी है ।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध - ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है । कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक १. उत्तराध्ययन, २८ ३०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org