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त्रिविध साधना - मार्ग
जैन दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग प्रस्तुत करता है | तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग हैं | उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ऐसे चतुर्विध मोक्ष मार्ग का भी विधान है। जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भावि चारित्र में किया है और इसलिए परवर्ती साहित्य में इसी त्रिविध साधना मार्ग का विधान मिलता है । उत्तराध्ययन में भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में त्रिविध साधना पथ का विधान है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में, आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध साधना पथ का विधान किया है ।
त्रिविध साधना-मार्ग ही क्यों ? यह प्रश्न उठ सकता है कि त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः त्रिविध साधना मार्ग के विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं आचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञान भाव और संकल्प । नैतिक जीवन का साध्य चेतना के इन तीनों पक्षों का विकास माना गया है । अतः यह आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना पथ का विधान किया जाय । चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक् बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिए सम्यग्दर्शन या श्रद्धा की साधना का विधान किया गया । इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक पक्ष के लिए सम्यक् चारित्र का विधान है । इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधना पथ के विधान के पीछे एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है ।
त्रिविध साधना मार्ग का
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बौद्ध दर्शन में त्रिविध साधना मागं - बौद्ध दर्शन में भी विधान है । प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में इसी का विधान अधिक है वैसे बुद्ध ने अष्टांग मार्ग का भी प्रतिपादन किया है । लेकिन यह अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधना मार्ग में ही अन्तर्भूत है । बौद्ध दर्शन में त्रिविध साधना मार्ग के रूप में शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान है । कहीं कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा के स्थान पर वीर्य, श्रद्धा और प्रज्ञा का भी विधान है। वस्तुतः वीर्य शील का और श्रद्धा समाधि की प्रतीक है ।
१. तत्त्वार्थसूत्र १।१
२. उत्तराध्ययन २८ २
२. ( अ ) अत्थि सद्धा ततो विरियं पञ्ञा च मम विज्जति । – सुत्तनिपात २८|८ (ब) सव्वदा सील सम्पन्नो ( इति भगवा ) पञ्ञवा सुसमाहितो |
अज्झत्त चिन्ती
सतिमा
ओघं
तरति
दुत्तरं ॥ - सुत्तनिपात ९।२२
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