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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्रेरक का है । इस प्रकार उन्होंने नैतिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों पर ही बल दिया ।
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मानव मात्र की समानता का उद्घोष- उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्णव्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी । वर्ण का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़कर जन्म मान लिया गया था । परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी थी और ऊँचनीच का भेद हो गया था, जिसके कारण सामाजिक स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था । जैन विचारधारा ने जन्मना जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष किया । एक ओर उसने हरिकेशी बल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को तो दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधनामार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। न केवल जातिगत विभेद वरन् आर्थिक विभेद भी साधना की दृष्टि से उसके सामने कोई मूल्य नहीं रखता । जहाँ एक ओर मगध सम्राट् तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन श्रावक उसकी दृष्टि में समान थे । इस प्रकार उसने जातिगत आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया ।
ईश्वरवाद से मुक्ति – उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतंत्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि से कम आँका जाने लगा था । एक ओर ईश्वरवादी धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएँ मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थीं । जैन आचार दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानवीय स्वतंत्रता की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा की। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियां मानव की निर्धारक हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतंत्रता का अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा हो नैतिक-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है ।
रूढ़िवाद से मुक्ति - जैन आचार दर्शन ने रूढ़िवाद से भी मानव जाति को मुक्त किया । उसने उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से मानव समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिए इन सबका खुला विरोध भी किया । ब्राह्मण वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था उसे समाप्त करने के लिए जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने खुला विद्रोह किया । लेकिन जैन परम्परा का यह विद्रोह पूर्णतया अहिंसक था । जैन और बौद्ध आचार्यों ने अपने इस विरोध में सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि अनेक प्रत्ययों को नई परिभाषाएँ दी गयीं । यहाँ जैन दर्शन के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही हैं ।
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