SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सम्भव नहीं है । अत. साधक को इनसे बचते ही रहना चाहिए । फिर भी यह पूछा जा सकता है कि क्या समाधि-मरण मृत्यु की आकांक्षा नहीं है ? समाधि-मरण और आत्महत्या जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में जीविताशा और मरणाशा दोनों को ही अनुचित कहा गया है । तो यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या समाधि-मरण मरणाकांक्षा या आत्महत्या नहीं है ? वस्तुतः समाधि-मरण न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही । व्यक्ति आत्महत्या या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन से निराश हो जाने पर करता है, लेकिन यह सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएँ हैं, जबकि समाधिमरण तो चित्त की समत्व अवस्था है । अतः उसे आत्महत्या नहीं कह सकते । दूसरे, आत्महत्या या आत्मबलिदान में मृत्यु को निमन्त्रण दिया जाता है। व्यक्ति के अन्तस् में मरने की इच्छा छिपी रहती है, लेकिन समाधिमरण में मरणाकांक्षा का न रहना ही अपेक्षित है, क्योंकि समाधिमरण के प्रतिज्ञासूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूँगा ( काल अकंखमाणे विहरामि ) यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती तो उसके प्रतिज्ञासूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। जैन विचारकों ने तो मरणाशंसा को समाधि-मरण का दोष ही कहा है । अतः समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कह सकते । जैन विचारकों ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अग्निप्रवेश या गिरिपतन आदि के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है, क्योंकि ऐसा करने में मरणाकांक्षा की सम्भावना है । समाधि-मरण में आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देहपोषण का विसर्जन किया जाता है । मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है, लेकिन उसकी आकांक्षा नहीं । जैसे फोड़े की चीरफाड़ से वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है । एक जैन आचार्य का कहना है कि समाधिमरण की क्रियाकरण के निमित्त नहीं होकर उसके प्रति कार के लिए है। जैसे व्रण का चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतिकार के लिए होता है ।२ यदि आपरेशन की क्रिया में हो जाने वाली मृत्यु हत्या नहीं है तो फिर समाधिमरण में हो जाने वाली मृत्यु भी आत्महत्या कैसे हो सकती है ? एक दैहिक जीवन की रक्षा के लिए है तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है। समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊबकर जीवन से भागना १. दर्शन और चिन्तन, पृ०५३६ तथा परमसखा मृत्यु, पृ० २४ । २. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ३६ पर उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy