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जैन आचार के सामान्य नियम
४३१ द्वारा कथित, संयम आदि के भेद से दस प्रकार का धर्म ही मोक्ष प्राप्त कराता है।' धर्म उनका बन्धु है, जिनका संसार में कोई बन्धु नहीं है । धर्म उनका सखा है, जिनका कोई सखा नहीं है। धर्म उनका नाथ है, जिनका कोई नाथ नहीं है । अखिल जगत् के लिए एकमात्र धर्म ही रक्षक है ।२
बौद्ध-परम्परा में धर्म-भावना-धम्मपद में कहा गया है कि धर्म के अमृतरस का पान करनेवाला सुख की नींद सोता है। चित्त प्रसन्न रहता है। पण्डित पुरुष आर्यों द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्ग पर चलता हुआ आनन्द पूर्वक रहता है। मनुष्य सदाचार धर्म का पालन करे, बुरा आचरण न करे, धर्म का आचरण करनेवाला इस लोक में और परलोक में सुखपूर्वक रहता है।
महाभारत में धर्म-भावना-महाभारत का वचन है कि धर्म से ही ऋषियों ने संसारसमुद्र को पार किया है। धर्म पर ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं। धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है। अतः मन को वश में करके धर्म को अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिए और सम्पूर्ण प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं ।
११. लोक-भावना-लोक की रचना, आकृति, स्वरूप आदि पर विचार करने के लिए लोक-भावना है। जैन दर्शन के अनुसार यह लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है
और अनादि काल से चला आ रहा है। आत्माएँ भी अनादि काल से अपने शुभाशुभ कार्यों के अनुसार परिभ्रमण कर रही हैं । इस लोक के अग्रभाग पर सिद्ध स्थान है । सिद्ध स्थान के नीचे ऊपर के भाग में स्वर्ग और अधोभाग में नरक है । इसके मध्यभाग में तिर्यंच एवं मनुष्यों का निवास है। लोक की इस आकृति एवं स्थिति पर विचार करते हुए साधक सदैव यही सोचे कि उसका आचार ऐसा हो जिससे उसकी आत्मा पतन के स्थानों को छोड़कर प्रलोक में जन्म ले या लोकान पर जाकर मुक्ति प्राप्त कर सके । यही इस भावना का सार है।
१२. बोधिदुर्लभ भावना-बोधिदुर्लभ भावना के द्वारा यह चिन्तन किया जाता है कि सन्मार्ग का जो बोध प्राप्त हुआ है उसका सम्यक् आचरण करना अत्यन्त दुष्कर है । इस दुर्लभ बोध को पाकर भी सम्यक् आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाण को प्राप्त नहीं किया तो पुनः ऐसा बोध प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। जैन-विचार में चार चीजों की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ कही गयी है-संसार में प्राणी को मनुष्यत्व की प्राप्ति, धर्म-श्रवण, शुद्ध श्रद्धा और संयम मार्ग में पुरुषार्थ । प्रथम तो अत्यन्त १. योगशास्त्र, २।११।
२. वही, ४११००। ३. धम्मपद, १७९ ।
४. महाभारत, शांतिपर्व, १६७।७ । ५. वही, १६७।९।
६. धम्मपद, १६९ । ७. उत्तराध्ययन, ३।१।
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