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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४०३ पापदेशना बतायी गयी है । प्रकृति-सावद्य स्वभाव से निन्दनीय जैसे हिंसा, असत्य, चोरी आदि और प्रज्ञप्ति सावद्य व्रत ग्रहण करने पर उसका भंग करना जैसे विकाल भोजन, परिग्रह आदि । आचार्य शान्तिदेव कहते हैं - 'जो भी प्रकृतिसावद्य और प्रज्ञप्तिसावद्य पाप मुझ अबोध मूढ़ ने कमाये, उन सबकी देशना, दुःख से घबराकर, मैं प्रभुओं के सामने हाथ जोड़ बारम्बार प्रणाम कर, करता हूँ । हे नायको, अपराध को अपराध के रूप में ग्रहण करो । हे प्रभुओ, मैं यह पाप फिर न करूँगा । जैन परम्परा के अनुसार २५ मिथ्यात्व १४ ज्ञानातिचार और १८ पापस्थान का आचरण अथवा मूलगुण का भंग प्रकृति सावद्य हैं, क्योंकि इनसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप साधना मार्ग का मूलोच्छेद होता है । गृहस्थ और श्रमण जीवन के गृहीत व्रतों एवं प्रतिज्ञाओं में लगने वाले दोष या स्खलनाएँ प्रज्ञप्ति -सावद्य हैं । बौद्ध आचार-दर्शन में प्रवारणा के लिए यह भी आवश्यक माना गया कि वह संघ के सान्निध्य में ही होना चाहिए। जैन - परम्परा में भी वर्तमान में सामूहिक प्रतिक्रमण की प्रणाली देखने में आती है । दोनों परम्पराओं में प्रतिक्रमण के समय आचार नियमों का पाठ किया जाता है और नियमभंग या दोषाचरण के लिए पश्चात्ताप प्रकट किया जाता है | बौद्ध परम्परा की विशेषता यह है कि उसमें प्रवारणा के समय वरिष्ठ भिक्षु आचरण के नियमों का पाठ करता है, और प्रत्येक नियम के पाठ के पश्चात् उपस्थित भिक्षुओं से इस बात की अपेक्षा करता है कि जिस भिक्षु ने उस नियम का भंग किया हो वह संघ के समक्ष उसे प्रकट कर दे । जैन परम्परा में आचरित दोषों के प्रायश्चित्त के लिए गुरु अथवा गीतार्थ मुनि से निवेदन तो किया जाता है, लेकिन संघ के समक्ष अशुभाचरण को प्रकट करने की परम्परा उसमें नहीं है । सम्भवतः संघ के समक्ष दोषों को प्रकट करने से दूसरे लोगों के द्वारा उसका गलत रूप में फायदा उठाने अथवा संघ की बदनामी की सम्भावना को ध्यान में रखकर ही ऐसा किया गया होगा । जैन - परम्परा संघ की अपेक्षा किसी परिपक्व बुद्धि के योग्य साधक के समक्ष ही पापालोचन की अनुमति देती है । जिसके समक्ष आलोचना की जाये वह व्यक्ति कैसा हो इसका निर्देश भी जैन आचार्यों ने किया है । वैदिक तथा अन्य धर्म परम्पराएं और प्रतिक्रमण वैदिक परम्परा में संध्या कृत्य में जिस यजुर्वेद के मंत्र का उच्चारण किया जाता है। वह भी जैन प्रतिक्रमण विधि का एक संक्षिप्त रूप ही है । संध्या के संकल्प - वाक्य में हो साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचरित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति इस १. बोधिचर्यावतार, २१६४-६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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