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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
चिपकी हुई वस्तुएँ बांस आदि की सलाई से पृथक् की जाती हैं, उसी प्रकार परस्पर बद्ध-कर्म और जीव को साधु समत्वभाव की शलाका से पृथक् कर देते हैं ।' समभाव रूप सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते हैं।२ जैनधर्म में समत्वयोग का अर्थ
समत्वयोग का प्रयोग हम जिस अर्थ में कर रहे हैं उसके प्राकृत पर्यायवाची शब्द है-सामाइय या समाहि । जैन आचार्यों ने इन शब्दों की जो अनेक व्याख्याएँ की हैं, उनके आधार पर समत्व-योग का स्पष्ट अर्थ बोध हो सकता है । १. सम अर्थात् राग और द्वष को वृत्तियों से रहित मनःस्थिति प्राप्त करना
समत्वयोग ( सामायिक ) है । २. शम ( जिसका प्राकृत रूप भी सम है ) अर्थात् क्रोधादि कषायों को शमित
(शांत) करना समत्वयोग है । ३. सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना समत्वयोग है। ४. सम का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है अर्थात् एकीभाव के द्वारा बहिर्मुखता (परपरिणति ) का त्यागकर अन्तर्मुख होना। दूसरे शब्दों में आत्मा का स्वस्वरूप में रमण करना या स्वभाव-दशा में स्थित होना ही समत्वयोग है। ५. सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्वयोग है। ६. सम शब्द का अर्थ अच्छा है और अयन शब्द का अर्थ आचरण है, अतः अच्छा
या शुभ आचरण भी समत्वयोग ( सामायिक ) है । नियमसार और अनुयोगद्वारसूत्र" में आचार्यों ने इस समत्व की साधना के स्वरूप का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। सर्व पापकर्मों से निवृत्ति, समस्त इन्द्रियों का सुसमाहित होना, सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव एवं आत्मवत् दृष्टि, तप, संयम और नियमों के रूप में सदैव ही आत्मा का सान्निध्य, समस्त राग और द्वषजन्य विकृतियों का अभाव, आर्त एवं रौद्र चिन्तन, हास्य, रति, अरति, शोक, घृणा, भय एवं कामवासना आदि मनोविकारों की अनुपस्थिति और प्रशस्त विचार ही आर्हत् दर्शन में समत्व का स्वरूप है।
१-४. योगशास्त्र, ४।५०-५३ । ५. (म) सामायिकसूत्र ( अमरमुनिजी), पृ० २७-२८ ।
(ब) विशेषावश्यकभाष्य-३४७७-३४८३ । ६. नियमसार, १२२-१३३
७. अनुयोगद्वार, १२७-१२८
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