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________________ भमण-धर्म ३७७ ११. सन्निषध्या-एक ही संघ के भिक्षु दूसरे भिक्षुओं के साथ एक ही आसन ( पाट ) पर बैठ सकते हैं । एक ही पाट पर बैठकर प्रवचन आदि कर सकते हैं। भिक्षु के लिए भिक्षुणियों के साथ एक ही पाट पर बैठना निषिद्ध है। १२. कथाप्रबन्ध-आपस में एक दूसरे के साथ बैठकर धार्मिक विषयों पर विचार करना। जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमणी-संघ व्यवस्था यद्यपि श्रमणों की संघ-व्यवस्था अति प्राचीन काल से प्रचलित थी, लेकिन श्रमणियों के संघ की व्यवस्था सामान्यतया सर्वप्रथम जन परम्परा में ही प्रचलित हुई । बुद्ध ने अपने भिक्षु-संघ में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति बहुत ही अनुनय-विनय के पश्चात् प्रदान की । यद्यपि जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस विषय में एकमत हैं कि भिक्षुणी संघ को भिक्षु संघ के अधीन ही रहना चाहिए, दोनों ही भिक्षुणी संघों में स्त्री-प्रकृति को ध्यान में रखते हुए कुछ विशिष्ट नियमों का प्रतिपादन हुआ है। बुद्ध ने इस संबंध में अष्टगुरुधर्मों का निर्देश किया है-(१) भिक्षुणी संघ में चाहे जितने वर्षों तक रही हो, तो भी वह छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं को प्रणाम करे । (२) जिस गांव में भिक्षु न हों वहां भिक्षुणी न रहे । (३) हर पखवाड़े में उपोसथ किस दिन है और धर्मोपदेश सुनने के लिए कब आना है, ये बातें भिक्षुणी भिक्ष -संघ से पूछ ले। (४) चातुर्मास्य के बाद भिक्षुणी को भिक्षु-संघ और भिक्षुणी-संघ दोनों में प्रवारणा करनी चाहिए । (५) जिस भिक्षुणी से संघादिशेष आपत्ति हुई हो उसे दोनों संघों में पन्द्रह दिनों का मानत्त लेना चाहिए । (६) जिसने दो वर्ष तक अध्ययन किया हो ऐसी श्रामणेरी को दोनों संघ उपसम्पदा दे दें। (७) किसी भी कारण से भिक्षुणी भिक्षु के साथ गाली-गलौज न करे, (८) भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दे ।२ जैन परम्परा में भी दीक्षा-वृद्ध श्रमणी को नवदीक्षित श्रमण को वन्दन करने का विधान है। इसी प्रकार जैन भिक्षुणी को भिक्ष संघ के निर्देश में चलना होता है। प्रायश्चित्त-विधान की दृष्टि से बड़े अपराधों के लिए आचार्य ही प्रायश्चित्त देता है। यद्यपि जैन परम्परा में श्रमणी वर्ग के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह उन्हीं स्थानों पर रहे जहां भिक्ष निवास करते हों। दीक्षा और आलोचना (प्रवारणा) की दृष्टि से जैन परम्परा में ऐसा कोई नियम नहीं है कि वह श्रमण-वर्ग के द्वारा या उनके सम्मुख ही हो । यद्यपि श्रमण भी श्रमणी को दीक्षित कर सकता है एवं श्रमणी श्रमण के सम्मुख आलोचना कर सकती है । १. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ४, पृ० २९२-२९६ । २. भगवान् बुद्ध, पृ० १६८-१६९, विनयपिटक चूलवग्ग, १०।१।२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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