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________________ अतीत आत्मवेत्ता महापुरुष के द्वारा लोकसंग्रह या लोककल्याण आदर्श प्रस्तुत कराया जाता है, किन्तु वह उसकी व्यक्तिगत श्रेष्ठता अथवा व्यक्तिगत मौज या लीला से अधिक नहीं माना जा सकता। वास्तव में उस निष्प्रयोजन व्यक्ति को प्रयोजन देना तार्किक नहीं रह जाता । बौद्धों के बोधिसत्व आदर्श में अन्यों से जो कुछ भिन्नता दिखाई पड़ती है, उसके पीछे बौद्धों की सम्पूर्णतः अनित्यवादी परिवर्तनशील कार्यकारण की व्याख्या है, किन्तु वहाँ भी कुछ विश्वासों के कारण परिवर्तनवादी कार्यकारण सिद्धान्त के बावजूद उस आधार पर नीति की अपेक्षित व्याख्या नहीं की जा सकी है । __एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है भारतीय आदर्शों का, जो सम्पूर्ण जीवन को प्रयोजनवत्ता प्रदान करते हैं । उसमें श्रेष्ठतम है निर्वाण या मोक्ष । संक्षेप में निर्वाण प्रापंचिक द्वन्द्वों एवं दुःखों से विमुक्त है। इसका घनिष्ठ सम्बन्ध व्यक्ति के साथ है, जो महत्त्वपूर्ण है; किन्तु सब कुछ नहीं है। इसका निर्णय लेना होगा कि मोक्ष की अवधारणा कितनी सामाजिक है । जितनी मात्रा में वह सामाजिक होगा, उतनी मात्रा में ही व्यवहार को नैतिक मूल्य प्रदान करने में समर्थ होगा। यदि मोक्ष समाज-निरपेक्ष है तो उसका स्तर नितान्त भिन्न होगा। इस स्थिति में स्वयं चाहे वह उत्कृष्ट एवं महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, किन्तु वह नैतिकता की समस्याओं से व्यक्ति में उदासीनता लाएगा। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय दर्शनों पर पलायनवादी होने का आक्षेप किया जाता है। यह आक्षेप निर्मूल नहीं है, अतः उपेक्षणीय भी नहीं है। कम से कम बौद्ध और जैन दर्शनों की मान्यताओं के बीच नवीन दृष्टि से नीति सम्बन्धी अध्ययन करने की अधिक सम्भावना है, आवश्यकता है उस दिशा में चिन्तन को। इसी अर्थ में डा० जैन का ग्रन्थ दिशानिर्देशक है । जगन्नाथ उपाध्याय भूतपूर्व श्रमण विद्या संकायाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी आभार श्रमण विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् प्रोफेसर पं० जगन्नाथ जी उपाध्याय ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर ग्रन्थ का समग्रतया अवलोकन कर भूमिका लिखने की कृपा की, एतदर्थ हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। डॉ० सागरमल जैन देवेन्द्रराज मेहता I A.S. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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