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________________ सामाजिक धर्म एवं दायित्व २५५ करना चाहिए । ( ४ ) उनके प्रति समानता का व्यवहार करना चाहिए । ( ५ ) उन्हें विश्वास प्रदान करना चाहिए । - मित्र का प्रत्युपकार - ( १ ) उसकी भूलों से निर्देश करते हैं) । (२) उसकी सम्पत्ति की रक्षा शरण प्रदान करते हैं । ( ४ ) आपत्काल में साथ नहीं छोड़ते हैं । ऐसे ( मित्र युक्त ) पुरुष का सत्कार करते हैं । रक्षा करते करते हैं । हैं (अर्थात् सही दिशा ( ३ ) विपत्ति के समय सेदक के प्रति स्वामी के कर्तव्य - (१) उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य लेना चाहिए । (२) उसे उचित भोजन और वेतन प्रदान करना चाहिए । (६) रोगी होने पर उसकी सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए । ( ४ ) उसे उत्तम रसों वाले पदार्थ प्रदान करना चाहिए । ( ५ ) समय-समय पर उसे अवकाश प्रदान करना चाहिए । सेवक का स्वामी के प्रति प्रत्युपकार - ( १ ) स्वामी के उठने के पूर्व अपने कार्य करने लग जाते हैं । (२) स्वामी के सोने के पश्चात् ही सोते हैं । ( ३ ) स्वामी द्वारा प्रदत्त वस्तु का ही उपयोग करते हैं । ( ४ ) स्वामी के कार्यों को सम्यक् प्रकार से सम्पादित करते हैं । ( ५ ) स्वामी की कीर्ति और प्रशंसा का प्रसार करते हैं । ( ५ ) अन्य लोग भी श्रमण ब्राह्मणों के प्रति कर्तव्य - (१) मैत्री भावयुक्त कायिक कर्मों से उनका प्रत्युपस्थान (सेवा-सम्मान) करना चाहिए । (२) मैत्रीभाव युक्त वाचिक कर्म से उनका प्रत्युपस्थान करना चाहिए । (३) मैत्रीभाव युक्त मानसिक कर्मों से उनका प्रत्युपस्थान करना चाहिए । ( ४ ) उनको दान-प्रदान करने हेतु सदैव द्वार खुला रखना चाहिए अर्थात् दान देने हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए । (५) उन्हें भोजन आदि प्रदान करना चाहिए । Jain Education International श्रमण ब्राह्मणों का प्रत्युपकार - ( १ ) पाप कर्मों से निवृत्त करते हैं । (२) कल्याणकारी कार्यों में लगाते हैं । ( ३ ) कल्याण (अनुकम्पा ) करते हैं । ( ४ ) अश्रुत (नवीन) ज्ञान सुनाते हैं । (५) श्रुत (अर्जित) ज्ञान को दृढ़ करते हैं । (६) स्वर्ग का रास्ता दिखाते हैं । वैदिक परम्परा में सामाजिक धर्म --- जिस प्रकार जैन परम्परा में दस धर्मों का वर्णन है उसी प्रकार वैदिक परम्परा में मनु ने भी कुछ सामाजिक धर्मों का विधान किया है, जैसे १. देशधर्म २. जातिधर्म ३. कुलधर्मं ४. पाखण्डधर्म ५. गणधर्म । मनुस्मृति में वर्णित ये पाँचों ही सामाजिक धर्म जैन परम्परा के दस सामाजिक धर्मों में समाहित हैं । इतना ही नहीं, दोनों में न केवल नाम साम्य है, वरन् अर्थ- साम्य भी है । गीता में भी कुलधर्म की चर्चा है । अर्जुन कुलधर्म की रक्षा के लिए ही युद्ध से बचने १. दोघनिकाय -- सिगालोपाद, सुत्त ३।७।५ । २. मनुस्मृति १।१९८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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