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________________ २५२ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं, जो जैन-नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते है । आवश्यकता इस बात की है कि हम आधुनिक सन्दर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें। बौद्ध-परम्परा में सामाजिक धर्म-बौद्ध परम्परा में भी धर्म के सामाजिक पहलू पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध ने स्वयं ही सामाजिक प्रगति के कुछ नियमों का निर्देश किया है। बुद्ध के अनुसार सामाजिक प्रगति के सात नियम हैं:-१. बारबार एकत्र होना, २. सभी का एकत्र होना, ३. निश्चित नियमों का पालन करना तथा जिन नियमों का विधान नहीं किया गया है, उनके सम्बन्ध में यह नहीं कहना कि ये विधान किये गये हैं, अर्थात् नियमों का निर्माण कर उन नियमों के अनुसार हा आचरण करना, ४. अपने यहां के वृद्ध राजनीतिज्ञों का मान रखना और उनसे यथावसर परामर्श प्राप्त करते रहना, ५. विवाहित और अविवाहित स्त्रियों पर अत्याचार नहीं करना और उन्हें उचित मान देना, ६. नगर के और बाहर के देवस्थानों का समचित रूप से संरक्षण करना और ७. अपने राज्य में आये हुए अर्हन्तों (वीतराग पुरुषों) को किसी प्रकार का कष्ट न हो तथा न आये हुए अर्हन्तों को राज्य में आने के लिए प्रोत्साहन मिले ऐसी सावधानी रखना। बुद्ध ने उपर्युक्त सात अभ्युदय के नियमों का प्रतिपादन किया था और यह बताया था कि यदि (वज्जी) गण इन नियमों का पालन करता रहेगा तो उसकी उन्नति होगी, अवनति नहीं। बुद्ध ने जैसे गृहस्थ वर्ग को उन्नति के नियम बताये, वैसे ही भिक्षु संघ के सामाजिक नियमों का भी विधान किया जिससे संघ में विवाद उत्पन्न न हो और संगठन बना रहे । बुद्ध के अनुसार इन नियमों का पालन करने से संघ में संगठन और एकता बनी रहती है-१. मैत्रीपूर्ण कायिक कर्म, २. मैत्रीपूर्ण वाचिक कर्म, ३ मैत्रीपूर्ण मानसिक कर्म, ४. उपासकों से प्राप्त दान का सारे संघ के साथ सम-विभाजन, ५. अपने शील में किंचित् भी त्रुटि न रहने देना और ६. आर्य श्रावक को शोभा देने वाली सम्यक् दृष्टि रखना । इस प्रकार बुद्ध ने भिक्षु संघ और गृहस्थ संघ दोनों के ही सामाजिक जीवन के विकास एवं प्रगति के सम्बन्ध में दिशा-निर्देश किया है । इतिवृत्तक में सामाजिक विघटन या संघ की फूट और सामाजिक संगठन या संघ के मेल (एकता) के दुष्परिणामों एवं सुपरिणामों की भी बुद्ध ने चर्चा की है। बुद्ध की दृष्टि में जीवन के सामाजिक पक्ष का महत्त्व अत्यन्त स्पष्ट था। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने सामाजिक जीवन के चार सूत्र प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैं:१. दानशीलता, २. स्नेहपूर्ण वचन, ३. बिना प्रतिफल के किया गया कार्य और १. उद्धृत-भगवान बुद्ध, पृ० ३१३-१८ ३. इतिवृत्तक, २१८-९ २. उद्धृत भगवान बुद्ध, पृ० १६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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