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________________ २५० जैनधर्म में सामाजिक जीवन के निष्ठा सूत्र १. सभी आत्माएँ स्वरूपतः समान हैं, अतः सामाजिक-जीवन में ऊँच-नीच के वर्ग-भेद खड़े मत करो । — उत्तराध्ययन १२।३७. २. सभी आत्माएँ समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अतः दूसरे के हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है । -- आचारांग १/२/३/३. ३. सबके साथ वैसा व्यवहार करो, जैसा तुम उनसे स्वयं के जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन समणसुत्तं २४. ४. संसार के सभी प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घुणा एवं विद्वेष मत रखो । ५. - समणसुत्तं ८६ गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा भाव ( तटस्थ - वृत्ति) रखो । - सामायिक पाठ १ ६. संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्यभाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा सहयोग प्रदान करो । प्रति चाहते हो । जैनधर्म में सामाजिक जीवन के व्यवहार सूत्र उपासक दशांगसूत्र, योगशास्त्र एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित श्रावक के गुणों, बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों से निम्न सामाजिक आचारनियम फलित होते हैं:१. किसी निर्दोष प्राणी को बन्दी मत बनाओ अर्थात् सामान्य जनों की स्वतन्त्रता में बाधक मत बनो । २. किसी का वध या अंगछेद मत करो, किसी से भी मर्यादा से अधिक काम मत लो, किसी पर शक्ति से अधिक बोझ मत लादो । ५. ३. किसी की आजीविका में बाधक मत बनो । ४. पारस्परिक विश्वास को भंग मत करो । न तो किसी की अमानत हड़प जाओ और न किसी के गुप्त रहस्य को प्रकट करो । सामाजिक जीवन में गलत सलाह मत दो, अफवाहें मत फैलाओ और दूसरों के चरित्र हनन का प्रयास मत करो । ६. अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु असत्य घोषणा मत करो । ७. न तो स्वयं चोरी करो, न चोर को सहयोग दो ओर न चोरी का माल खरीदो । ८. व्यवसाय के क्षेत्र में नाप-तौल में प्रामाणिकता रखो और वस्तुओं में मिलावट मत करो । Jain Education International ९. राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन मत करो । १०. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो । वेश्या - संसर्ग, वेश्यावृत्ति एवं उसके द्वारा धन का अर्जन मत करो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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