SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૧૪ सामाजिक धर्म एवं दायित्व सामाजिक धर्म जैन आचारदर्शन में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की विवेचना की गयी है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । जैन विचारकों ने संघ या सामाजिक जीवन की प्रमुखता सदैव स्वीकार की है । स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में दस धर्मों का विवेचन उपलब्ध है * १. ग्रामधर्म, २. नगरधर्म, ३. राष्ट्रधर्म, ४. पाखण्डधर्म, ५. कुलधर्म, ६. गणधर्म, ७. संघधर्म, ८. सिद्धान्तधर्म ( श्रुतधर्म), ९. चारित्रधर्म और १०. अस्तिकायधर्म । इनमें से प्रथम सात तो पूरी तरह से सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं । १. प्रामधर्म- - ग्राम के विकास, व्यवस्था तथा शान्ति के लिए जिन नियमों को ग्रामवासियों ने मिलकर बनाया है, उनका पालन करना ग्रामधर्म है । ग्रामधर्म का अर्थ है जिस ग्राम में हम निवास करते हैं, उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना | ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह है । अतः सामूहिक रूप में एकदूसरे के सहयोग के आधार पर ग्राम का विकास करना, ग्राम के अन्दर पूरी तरह व्यवस्था और शान्ति बनाये रखना और आपस में वैमनस्य और क्लेश उत्पन्न न हो उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही ग्रामधर्म के प्रमुख तत्त्व हैं। ग्राम में शान्ति एवं व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ के लोगों के जीवन में भी शान्ति नहीं रहती । जिस परिवेश में हम जीते हैं, उसमें शान्ति और व्यवस्था के लिए आवश्यक रूप से प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है । प्रत्येक ग्रामवासी सदैव इस बात के लिए जागृत रहे कि उसके किसी आचरण से ग्राम के हितों को चोट न पहुँचे । ग्रामधर्म की व्यवस्था के लिए जैन आचार्यों ने ग्रामस्थविर की व्यवस्था भी की है । ग्रामस्थविर ग्राम का मुखिया या नेता होता है । ग्रामस्थविर का प्रयत्न रहता है कि ग्राम की व्यवस्था, शान्ति एवं विकास के लिए, ग्रामजनों में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बना रहे । २. नगर - ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम को जो उनका व्याव सायिक केन्द्र होता है, नगर कहा जाता है । सामान्यतः ग्राम धर्म और नगरधर्म में विशेष अन्तर नहीं है । नगरधर्म के अन्तर्गत नगर की व्यवस्था एवं शान्ति, नागरिक - नियमों का पालन एवं नागरिकों के पारस्परिक हितों का संरक्षण-संवर्धन आता है । १. स्थानांग १०।७६० विशेष विवेचना के लिए देखिए - ( अ ) धर्म व्याख्या (श्री जवाहरलालजी म० ) ( ब ) धर्म दर्शन ( श्री शुक्लचन्दजी म० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy