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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
किया है कि हिंसा की अवधारणा का विकास भय के हैं- 'असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की यह धारणा ही अहिंसा का मूल है ।' लेकिन कोई भी धारणा से सहमत नहीं होगा ।
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आधार पर हुआ है । वे लिखते दृष्टि से देखते थे और भय की प्रबुद्ध विचारक मेकेन्ज़ी की इस
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है । उसमें अहिंसा को आर्हत प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है । सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाय ? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है, वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है ।" अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है । अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है, जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। अहिंसा का आधार 'भय' मानना गलत है क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं । जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी। जबकि जैनधर्म तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है, अत: अहिंसा को भय के आधार पर नहीं अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया जा सकता है । पुनः जैनधर्म ने इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही अहिंसा को तुल्यता बोध का बौद्धिक आधार भी गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान की पीड़ा को भी समझ सकता है । होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा की नींव है ।
दिया गया है । वहाँ कहा पाता है वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर
वस्तुत: अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना, एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है । अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्मान से विकसित होती है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध ( हिंसा ) का निषेध करते हैं । 3 वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है । जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है । उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया
१. अज्झत्थ जाणइ से बहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसि, १।१।७ २. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला, १।२।३
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३. दशवैकालिक ६।११
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