SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तस्व : अहिंसा अनाग्रह और अपरिग्रह १९७ चुका है, उसे ही सुख है, उसे ही शान्ति है।' अंगुत्तरनिकाय में यह बात और अधिक स्पष्ट कर दी गयी है। हिंसक व्यक्ति जगत् में नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। वे कहते हैं-"भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो। कौन से तीन ? स्वयं प्राणी हिंसा करता है, दूसरे प्राणी को हिंसा की ओर घसीटता है और प्राणी-हिंसा का समर्थन करता है। भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा ही होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो ।" ___ "भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो । कौन से तीन ?" "स्वयं प्राणी हिंसा से विरत रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता।" बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय में करुणा और मंत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा है। हिन्दूधर्म में अहिंसा का स्थान-गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है। उसे देवी सम्पदा एवं सात्विक तप भी कहा है। महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। यही नहीं, उसमें धर्म के उपदेश का उद्देश्य भी प्राणियों को हिंसा से विरत करना है। अहिंसा ही धर्म का सार है। महाभारतकार का कथन है कि'प्राणियों की हिंसा न हो, इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है, अतः जो अहिंसा से युक्त है, वही धर्म है ।' लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा गया, उसका युद्ध से उपरत होने का कार्य निन्दनीय तथा कायरतापूर्ण माना गया है, फिर गीता को अहिंसा को समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में गीता के व्याख्याकारों की दृष्टिकोणों को समझ लेना आवश्यक है। आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युध्यस्व (युद्ध कर)' शब्द की टीका में लिखते हैं-यहाँ (उपर्युक्त कथन से) युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है । इतना ही नहीं, आचार्य 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के आधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं-'जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय या प्रतिकूल १. धम्मपद, २०१ २. अंगुत्तरनिकाय, ३।१५३ ३. गोता १०१५-७, १६।२, १७।१४ ४. महाभारत, शान्ति पर्व, २४५।१९ ५. वही, १०९।१२ ६ . गीता (शांकर भाष्य), २०१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy