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________________ सामाजिक तिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह १९५ प्रतिफलित होने वाला अपरिग्रह का सिद्धान्त सामाजिक एवं आर्थिक अहिंसा कहा जा सकता है । यदि साधना के तीन अंग - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के व्यावहारिक पक्षों की दृष्टि से विचार किया जाय तो अनासक्ति सम्यग्दर्शन का, अनेकान्त ( अनाग्रह ) सम्यग्ज्ञान का और अहिंसा सम्यक् चारित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं । दर्शन का सम्बन्ध वृत्ति से है, ज्ञान का सम्बन्ध विचार से है और चारित्र का कर्म से है | अतः वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनाग्रह और आचरण में अहिंसा यही जैन आचार दर्शन के रत्नत्रय का व्यावहारिक स्वरूप है जिन्हें हम सामाजिक के सन्दर्भ में क्रमशः अपरिग्रह, अनेकान्त ( अनाग्रह ) और अहिंसा के नाम से जानते हैं । अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जब सामाजिक जीवन से सम्बन्धित होते हैं, तब वे सम्यक् आचरण के ही अंग कहे जाते हैं । दूसरे, जब आचरण से हमारा तात्पर्य कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के कर्मों से हो, तो अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का समावेश सम्यक् आचरण में हो जाता है । सम्यक् आचरण एक प्रकार से जीवन शुद्धि का प्रयास है, अतः मानसिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनासक्ति (अपग्रिह), वाचिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनेकान्त ( अनाग्रह) और कायिक कर्मों की शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है । इस प्रकार जैन जीवन-दर्शन का सार इन्हीं तीन सिद्धान्तों में निहित है । जैनधर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित ही है स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यं पीड़नं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ सच्चा जैन वही है जो पक्षपात समत्व ) से रहित है, अनाग्रही और अहिंसक है । यहाँ हमें इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार आत्मा या चेतना के तीन पक्ष ज्ञान, दर्शन और चारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में एक दूससे से अलग-अलग नहीं रहते हैं, उसी प्रकार अहिंसा, अनाग्रह ( अनेकान्त ) और अपरिग्रह भी सामाजिक समता की स्थापना के प्रयास के रूप में एक दूसरे से अलग नहीं रहते । जैसे-जैसे वे पूर्णता की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे एक दूसरे के साथ समन्वित होते जाते हैं । अहिंसा जैनधर्म में अहिंसा का स्थान अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है । अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार - विधि घूमती है । जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा गया है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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