________________
१७४
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्रधान तत्व परोपकार ही है, यद्यपि उसे अध्यात्म या परमार्थ का विरोधी नहीं होना चाहिए। गीता में भी जिन-जिन स्थानों पर लोकहित का निर्देश है, वहाँ निष्कामता की शर्त है हो। निष्काम और आध्यात्मिक या नैतिक तत्त्वों के अविरोध में रहा हुआ परार्थ हो गीता को मान्य है । गीता में भी स्वार्थ और परार्थ की समस्या का सच्चा हल आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना में खोजा गया है । जब सभी में आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाती है तो न स्वार्थ रहता है, न परार्थ; क्योंकि जहाँ 'स्व' हो वहाँ स्वार्थ रहता है । जहाँ पर हो, वहाँ परार्थ रहता है। लेकिन सर्वात्मभाव में 'स्व' और 'पर' नहीं होते हैं, अतः उस दशा में स्वार्थ और परार्थ भी नहीं होता है । वहाँ होता है केवल परमार्थ । भौतिक स्वार्थों से ऊपर परार्थ का स्थान सभी को मान्य है । स्वार्थ और परार्थ के सम्बन्ध में भारतीय आचार-दर्शनों के दृष्टिकोण को भर्तृहरि के इस कथन से भलीभांति समझा जा सकता है-प्रथम, जो स्वार्थ का परित्याग कर परार्थ के लिए कार्य करते हैं वे महान हैं; दूसरे, जो स्वार्थ के अविरोध में परार्थ करते हैं अर्थात् अपने हितों का हनन नहीं करते हुए लोकहित करते हैं वे सामान्य जन हैं; तीसरे, जो स्वहित के लिए परहित का हनन करते हैं वे अधम (राक्षस) कहे जाते हैं। लेकिन चौथे, जो निरर्थक ही दूसरों का अहित करते हैं उन्हें क्या कहा जाए, वे तो अधमाधम हैं ।' फिर भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारतीय चिन्तन में परार्थ या लोकहित अन्तिम तत्त्व नहीं है । अन्तिम तत्त्व है परमार्थ या आत्मार्थ । पाश्चात्त्य आचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या का अन्तिम हल सामान्य शुभ में खोजा गया, जबकि विशेष रूप से जैन-दर्शन में और सामान्य रूप से समग्र भारतीय चिन्तन में इस समस्या का हल परमार्थ या आत्मार्थ में खोजा गया। नैतिक चेतना के विकास के साथ लोकमंगल की साधना भारतीय चिन्तन का मूलभूत साध्य रहा है।
ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है । हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियाँ मननीय हैं:
इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; जितने बहुधन्धी विवेक विहीन है। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, छूटे दलन के फन्द से,
१. तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय भाग १, पृ० १०१७. नीतिशतक (भर्तृहरि), ७४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org