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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन एवं संग्रहवृत्ति सामाजिक जीवन की बुराइयाँ हैं । इनसे बचने के लिए पाँच महावतों के रूप में जिन नैतिक सद्गुणों की स्थापना की गई, वे पूर्णतः सामाजिक-जीवन से सम्बन्धित हैं । अतः भारतीय दर्शन ने अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल दिया है वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है। संन्यास और समाज
सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज निरपेक्ष माना जाता है, किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है ? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि 'वित्तषणा पुढेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता' अर्थात् मैं अर्थ-कामना, सन्तान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूँ किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यश-कीर्ति की कामना का परित्याग समाज का परित्याग है ? वस्तुतः समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित निःस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है ।
भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान बुद्ध का यह आदेश 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' (विनयपिटक-महावग्ग) इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोक-मंगल के लिए होता है । सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है । वस्तुतः वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है कि समष्टि का होकर रहे क्योंकि जो किसी का है वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है । संन्यासी निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम् पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख करना भी है । संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विकास करता है । संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है । ट्रस्टी यदि ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार यदि वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्व-बुद्धि या स्वार्थ बुद्धि से काम करता है तो संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो वह भी संन्यासी नहीं है । उपके जीवन का मिशन तो 'सर्वभूत-हिते रतः' का है । १. लेखक इस व्याख्या के लिए महेन्द्र मुनि जी का आभारी है।
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