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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
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विद्धि सात्विकम् ।' वैयक्तिक विभिन्नताओं में भी एकात्मता की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता और हमारी समाज - निष्ठा का एक मात्र आधार है । सामाजिक दृष्टि से गीता 'सर्वभूतहिते रताः' का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती है । अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है । श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं
'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः "
मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूरा बल दिया गया है जो अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण किये बिना भोग करता है वह गीताकार की दृष्टि में चोर (स्तेन एव सः ३ । १२) । साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है वह पाप का ही अर्जन करता है । (भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ३।१३) | गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है । वह कहती है कि
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'काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः
काय अर्थात् स्वार्थ युक्त कर्मों का त्याग ही हो जाना संन्यास नहीं है । सच्चे संन्यासी का के लिए अनासक्त भाव से कर्म करता रहे । अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं करोति यः । स संन्यास च योगी च न निरग्नि र्न चाक्रियः ॥ ३
संन्यास है, केवल निरग्नि और निष्क्रिय लक्षण है समाज में रहकर लोककल्याण
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक - शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे ( कुर्यात् विद्वान् तथा असक्तः चिकीर्षुः लोकसंग्रहम् ) । गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया । वस्तुतः वेदों में एवं स्वयं गीता में भी जो विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से उत्पत्ति के रूप में वर्णों की अवधारणा है वह अन्य कुछ नहीं अपितु समाज - पुरुष के विभिन्न अंगों को अवधारणा है और किसी सीमा तक समाज के आंगिकता सिद्धांत का ही प्रस्तुतीकरण है ।
सामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है | श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है । उसमें कहा गया है:
१. गीता १२।४ २. वही, १८।२ ३. वही, ६।१
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४. वही, ३।२५
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