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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को स्वीकार करना होगा। दोनों को अपनी-अपनी सीमाएं एवं क्षेत्र हैं, जिनका अतिक्रमण करने पर उनका लोकमंगलकारी स्वरूप नष्ट हो जाता है। निवृत्ति का क्षेत्र आन्तरिक एवं आध्यात्मिक जीवन है और प्रवृत्ति का क्षेत्र बाह्य एवं सामाजिक जीवन है। दोनों को एक-दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। निवृत्ति उसी स्थिति में उपादेय हो सकती है जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखेः
१. निवृत्ति को लोककल्याण की भावना से विमुख नहीं होना चाहिए । २. निवृत्ति का उद्देश्य मात्र अशुभ से निवृत्ति होनी चाहिए । ३. निवृत्यात्मक जीवन में साधक की सतत जागरूकता होना चाहिए निवृत्ति मात्र
आत्मपीड़न बनकर न रह जावे, वरन् व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक
भी हो। इसी प्रकार प्रवृत्ति भी उसी स्थिति में उपादेय है जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखें :१. यदि निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी-अपनी सीमाओं में रहते हुए परस्पर अविरोधी
हों तो ऐसी स्थिति में प्रवृत्ति त्याज्य नहीं है । २. प्रवृत्ति का उद्देश्य हमेशा शुभ होना चाहिए । ३. प्रवृत्ति में क्रियाओं का सम्पादन विवेकपूर्वक होना चाहिए। ४. प्रवृत्ति राग-द्वेष अथवा मानसिक विकारों ( कषायों ) के वशीभूत होकर नहीं __ की जानी चाहिए ।
इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी मर्यादाओं में रहती हैं तो वे जहाँ एक ओर सामाजिक विकास एवं लोकहित में सहायक हो सकती हैं, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की ओर भी ले जाती हैं । अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही नैतिक आचरण का सच्चा मार्ग है।'
१ उद्धृत-त्रिलोकशताब्दी अभिनन्दन ग्रंथ, लेख-खण्ड, पृ० ४३
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