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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२३ करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा । बन्धन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है ।" हे अर्जुन, यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किचित् भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ । इसलिए हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान् भी लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे । गीता की भक्तिमार्गीय व्याख्याएँ तो मोक्ष की अवस्था में भी निष्क्रियता को स्वीकार न करमुक्त आत्मा को सदैव ही ईश्वर की सेवा में तत्पर बनाये रखती हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शनों में निवृत्ति का अर्थ निष्क्रियता नहीं है । उनके अनुसार निवृत्ति का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि जीवन में निष्क्रियता को स्वीकार किया जाये । न तो साधना काल में ही निष्क्रियता का कोई स्थान है और न नैतिक आदर्श (अर्हत् अवस्था या जीवन्मुक्ति) की उपलब्धि के पश्चात् ही निष्क्रियता अपेक्षित है । कृतकृत्य होने पर भी तीर्थकर, सम्यक् सम्बुद्ध और पुरुषोत्तम का जीवन सतत रूप से कृत्यात्मकता का ही परिचय देता है और बताता है कि लक्ष्य की सिद्धि के पश्चात् भी लोकहित के लिए प्रयास करते रहना चाहिए । गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास धर्म जैन और बौद्ध दृष्टिकोण – यह भी समझा जाता है कि निवृत्ति का अर्थ संन्यासमार्ग है अर्थात् गृहस्थ जीवन के कर्मक्षेत्र से पलायन । यदि इस अर्थ के सन्दर्भ में निवृत्ति का विचार करें तो स्वीकार करना होगा कि जैनधर्म और बौद्धधर्म निवर्तक धर्म हैं, क्योंकि दोनों आचार-परम्पराओं में स्पष्ट रूप से संन्यास धर्म की प्रधानता एवं श्रेष्ठता स्वीकृत है । जैनागम दशैवकालिकसूत्र में कहा गया है - "गृहस्थ जीवन क्लेशयुक्त हैसंन्यास क्लेशशून्य है, गृहस्थवास बन्धनकारक है, संन्यास मुक्ति प्रदाता है। गृहस्थ जीवन पापकारी है, संन्यास निष्पाप है ।" बोद्ध ग्रंथ सुत्तनिपात में भी कहा गया है कि 'यह गृहवास कंटकों से पूर्ण है, वासनाओं का घर है, प्रव्रज्या खुले आकाश जैसी निर्मल है । ४ प्रवृत्ति और निवृत्ति के उक्त अर्थ के आधार पर जैन एवं बौद्ध परम्पराएँ निवृत्तिलक्षी ही ठहरती हैं। दोनों प्रचार-दर्शन यह मानते हैं कि परमश्रेय की उपलब्धि के लिए जिस आत्म-सन्तोष, अनासक्तवृत्ति, माध्यस्थभाव या समत्वभाव की अपेक्षा है, वह गृहस्थ जीवन में चाहे असाध्य नहीं हो, तो भी सुसाध्य तो नहीं ही है । इसके लिए जिस एकान्त, निर्मोही एवं शान्त जीवन को आवश्यकता है, वह गृहस्थ अवस्था में सुलभ नहीं है | अतः संन्यासमार्ग ही एक ऐसा मार्ग है जिसमें साधना के लिए विघ्न-बाधाओं की सम्भावनाएँ कम होती हैं । १. गीता, ३।७-९ ३. दशवैकालिक चूलिका, १।११,१२,१३ Jain Education International २. वही, ३।२२, २५ ४. सुत्तनिपात, २७/२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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