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________________ सम्यक् तप तथा योग-मार्ग साधना (अविपाक निर्जरा) से ही सम्भव है । जैन साधना में तप का क्या स्थान है, इस तथ्य के साक्षी जैनागम ही नहीं है वरन् बौद्ध और हिन्दू आगमों में भी जैन-साधना के तपोमय स्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है।' हिन्दू साधना-पद्धति में तप का स्थान-वैदिक साधना चाहे प्रारम्भिक काल में तप प्रधान (निवृत्तिपरक) न रही हो, लेकिन विकासचरण में श्रमण-परम्परा से प्रभावित हो, समन्वित हो, तपोमय साधना से युक्त हो गयी, वैदिक ऋषि तप की महत्ता का सबलतम शब्दों में उद्घोष करते हैं। वे कहते हैं, तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए, तपस्या से ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ब्रह्म खोजा जाता है , तपस्या से ही मृत्यु पर विजय पायी जाती है और ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है।५ तपस्या के द्वारा ही तपस्वी-जन लोक-कल्याण का विचार करते हैं और तपस्या से ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है। इतना ही नहीं, वे तो तप रूप साधन को साध्य के तुल्य मानते हुए कहते हैं-"तप ही ब्रह्म है ।" जैन-साधना में भी तप को आत्म-गुण मानकर उसे साध्य और साधन दोनों रूप में स्वीकार किया गया है। __ आचार्य मनु कहते हैं कि तपस्या से ऋषिगण त्रैलोक्य के चराचर प्राणियों को देखते हैं, जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर इस संसार में है, वह सब तपस्या से साध्य है । तपस्या की शक्ति दूरतिक्रम है।° महापातकी और निम्न आचरण करनेवाले भी तपस्या से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते हैं।" . तप की महत्ता के सम्बन्ध में और भी सैकड़ों साक्ष्य हिन्दू आगम ग्रन्थों से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लेकिन विस्तार-भय से केवल गोस्वामी तुलसीदास जी के दो चरण प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा-वे कहते हैं, तप सुखप्रद सब वोष नसावा तथा 'करउ जाइ तप अस जिय नानी।' बौद्ध साधना-पद्धति में तप का स्थान-यह स्पष्ट तथ्य है कि 'तप' शब्द आचार के जिस कठोर अर्थ में जैन और हिन्दू परम्परा में प्रयुक्त हुआ है, वह बौद्ध साधना में उसकी मध्यममार्गी साधना के कारण उतने कठोर अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है । बौद्ध साधना में तप का अर्थ है-चित्त शुद्धि का सतत प्रयास । बौद्ध-साधना तप को प्रयत्न १. देखिए-श्रीमद्भागवत, ५१२, मज्झिमनिकाय-चूल दुक्खक्खन्ध सुत्त २. ऋग्वेद, १०।१९०१ ३. मनुस्मृति, ११।२४३ ४. मुण्डकोपनिषद्, १११३८ ५. अथर्ववेद, ११।३।५।१९ ६. वही, १९।५।४१ ७. शतपथब्राह्मण, ३।४।४।२७ ८. उत्तराध्ययन, २८।११, तैत्तिरीय उपनिषद्, ३।२।३।४ १९. मनुस्मृति, ११॥२३७ १०. वही, १११२३८ ११. वही, ११॥२३९ Jain Education International! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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