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________________ सम्यक् तप तथा योग-मार्ग ९७ की जानी है और यह सन्तुष्टि ही सुख उपलब्धि का साधन बनती है। लेकिन विचार पूर्वक देखें तो यहां भी त्यागभावना मौजूद है, चाहे अपनी अल्पतम मात्रा में ही क्यों न हो, क्योंकि यहाँ भी बुद्धि की बात मानकर हमें संघर्षशील वासनाओं में एक समय के लिए एक का त्याग करना ही होता है । त्याग की भावना ही तप है । दूसरे तप का एक अर्थ होता है-प्रयत्न, प्रयास, और इस अर्थ में भी वहाँ 'तप' है, क्योंकि वासना को पूत्ति भी बिना प्रयास के सम्भव नहीं है। लेकिन यह सब तो तप का निम्नतम रूप है, यह उपादेय नहीं है। हमारा प्रयोजन तो यहाँ मात्र इतना दिखाना था कि कोई भी नैतिक प्रणाली तपःशून्य नहीं हो सकती। ____ जहाँ तक भारतीय नैतिक विचारधाराओं की, आचार-दर्शनों की, बात है, उनमें से लगभग सभी का जन्म 'तपस्या' की गोद में हुआ, सभी उसीमें पले एवं विकसित हुए हैं। यहाँ तो घोर भौतिकतावादी अजित-केसकम्बलिन् और नियतिवादी गोशालक भी तप-साधना में प्रवृत्त रहते हैं, फिर दूसरी विचार सरणियों में निहित तप के महत्त्व पर तो शंका करने का प्रश्न ही नहीं उठता ।हाँ, विभिन्न विचार-सरणियों में तपस्या के लक्ष्य के सम्बन्ध में मत-भिन्नता हो सकती है, तप के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार-भेद हो सकता है, लेकिन तपस्या के तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता । तप-साधना भारतीय नैतिक जीवन एवं संस्कृति का प्राण है। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में "भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या ओज उत्पन्न हुआ है"तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नहीं, किन्तु उसके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है"प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित हैं"उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं।" भारतीय नैतिक जीवन या आचार-दर्शन में तप के महत्त्व को अधिक स्पष्ट करते हुए काका कालेलकर लिखते हैं, "बुद्धकालीन भिक्षुओं की तपश्चर्या के परिणामस्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्य ( कालीन ) संस्कृति का विस्तार हो पाया। शंकराचार्य की तपश्चर्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ। महावीर की तपस्या से अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ।""""बंगाल के चैतन्य महाप्रभु (जो) मुखशुद्धि के हेतु एक हर्र भी नहीं रखते थे, उन्हीं से बंगाल की वैष्णव संस्कृति विकसित हुई।"१ यह सब तो भूतकाल के तथ्य हैं, लेकिन वर्तमान युग का जीवन्त तथ्य है गांधी १. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ७१-७२ । २. जीवनसाहित्य, द्वितीय भाग, पृ० १९७-१९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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