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________________ ८४ ___ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पहुँचता है । तर्क या बुद्धि को अनुभूति का सम्बल चाहिए । दर्शन परिकल्पना है, ज्ञान प्रयोग-विधि है और चारित्र प्रयोग है। तीनों के संयोग से सत्य का साक्षात्कार होता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है।' सत्य जब तक स्वयं के अनुभवों में प्रयोग-सिद्ध नहीं बन जाता, तबतक वह सत्य नहीं होता । सत्य तभी पूर्ण सत्य होता है जब वह अनुभूत हो । इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि ज्ञान के द्वारा परमार्थ का स्वरूप जाने, श्रद्धा के द्वारा स्वीकार करे, और आचरण के द्वारा उसका साक्षात्कार करे । यहाँ साक्षात्कार का अर्थ है सत्य, परमार्थ या सत्ता के साथ एकरस हो जाना। शास्त्रकार ने परिग्रहण शब्द की जो योजना की है वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बौद्धिक ज्ञान तो हमारे सामने चित्र के समान परमार्थ का निर्देश कर देता है । लेकिन जिस प्रकार से चित्र और यथार्थ वस्तु में महान् अन्तर होता है उसी प्रकार परमार्थ के ज्ञान द्वारा निर्देशित स्वरूप में और तत्त्वतः परमार्थ में भी महान् अन्तर होता है । ज्ञान तो दिशा-निर्देश करता है, साक्षात्कार तो स्वयं करना होता है । साक्षात्कार की यही प्रक्रिया आचारण या चारित्र है । सत्य, परमार्थ, आत्म या तत्त्व जिसका साक्षात्कार किया जाना है वह तो हमारे भीतर सदैव ही उपस्थित है। लेकिन जिस प्रकार मलिन, गंदले एवं अस्थिर जल में कुछ भी प्रतिबिम्बित नहीं होता उसी प्रकार वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की वृत्तियों से मलिन एवं अस्थिर बनी हुई चेतना में सत्य या परमार्थ प्रतिबिम्बित नहीं होता । प्रयास या आचरण सत्य को पाने के लिए नहीं, वरन् वासनाओं एवं राग-द्वेष की वृत्तियों से जनित इस मलिनता या अस्थिरता को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। जब वासनाओं की मलिनता समाप्त हो जाती है, राग और द्वेष के प्रहाण से चित्त स्थिर हो जाता है तो सत्य प्रतिबिम्बित हो जाता है और साधक को परम शान्ति, निर्वाण या ब्रह्म-भाव का लाभ हो जाता है । हम वह हो जाते हैं जो कि तत्त्वतः हम हैं । सम्यकचारित्र का स्वरूप-सम्यक्चारित्र का अर्थ है चित्त अथवा आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना। यह अस्थिरता या मलिनता स्वाभाविक नहीं, वरन् वैभाविक है, बाह्यभौतिक एवं तज्जनित आन्तरिक कारणों से है। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ इस तथ्य को स्वीकार करती है। समयसार में कहा है कि तत्त्व दृष्टि से आत्मा शुद्ध है । भगवान् बुद्ध भी कहते हैं कि भिक्षुओं, यह चित्त स्वाभाविक रूप में शुद्ध है । गीता भी उसे अविकारी कहती है। आत्मा या चित्त की जो अशुद्धता है, मलिनता है, अस्थिरता या चंचलता है, वह बाह्य है, अस्वाभाविक है। जैन-दर्शन उस मलिनता के कारण को कर्ममल मानता है, गीता उसे त्रिगुण १. आचारांगनियुक्ति, २४४ २. समयसार, १५१ ३. अंगुत्तरनिकाय, १।५।९ ४. गीता, २।२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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