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सम्यग्ज्ञान
और शैली में दोनों ही अनात्म-भावना या भेद-विज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते है, जो तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में बुद्ध वाणी है।
"भिक्षुओं, चक्षु अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।"
"भिक्षुओं, घ्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।"
"भिक्षुओं, रूप अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।" ___ 'भिक्षुओ, शब्द अनित्य है। गंध""। रस। स्पर्श'। धर्म अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।'
'भिक्षुओं । इसे जान पण्डित आर्यश्रावक चक्षु में वैराग्य करता है, श्रोत्र में, घ्राण में, जिह्वा में, काया में, मन में वैराग्य करता है। वैराग्य करने से, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है । विमुक्त होने से विमुक्त हो गया ऐसा ज्ञान होता है । जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था सो कर लिया, पुनः जन्म नहीं होगा-जान लेता है।' __भिक्षुओं । अतीत और अनागत रूप अनात्म है वर्तमान का क्या कहना ? शब्द। गन्ध....। रस । स्पर्श । धर्म।
भिक्षुओं । इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत रूप में भी अनपेक्ष होता है, अनागत रूप का अभिनन्दन नहीं करता और वर्तमान रूप के निर्वेद, विराग और विरोध के लिए यत्नशील होता है।'
शब्द"। गन्ध'"। रस""। स्पर्श" धर्म..।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म-भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। बौद्ध-विचारणा में समस्त जागतिक उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का आधार है उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दुःखमयता । जैन-विचारणा ने अपने भेदाभ्यास की साधना में जागतिक उपादानों में अन्यत्व भावना का आधार उनकी सांयोगिक उपलब्धि को माना है, क्योंकि यदि सभी १. संयुत्तनिकाय, ३४।१।१।१; ३४।१।१।४; ३४।१।१।१२
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