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सम्यग्ज्ञान
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पाश्चात्य विचारकों में काँट भी यह मानते हैं कि आत्मा का ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के आधार पर नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह सकता, अन्यथा ज्ञाता के रूप में वह सदा ही अज्ञेय बना रहेगा। वहाँ तो जो ज्ञाता है वही ज्ञेय है, यही आत्मज्ञान की कठिनाई है। बुद्धि अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विकल्पों से परे नहीं जा सकती, जबकि आत्मा या स्व तो बुद्धि की विधाओं से परे है । आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा है । बुद्धि की विधाएँ या नयपक्ष ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित हैं । वे आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नहीं कर सकते । उसे तर्क और बुद्धि से अज्ञेय कहा गया है।
मैं सबको जान सकता हूँ, लेकिन उसी भाँति स्वयं को नहीं जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी दुरूह बनी हुई है। इसीलिए सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्द को भी कहना पड़ा, आत्मा बड़ी क ठनता से जाना जाता है ।२ निश्चय ही आत्मज्ञान वह ज्ञान नहीं है जिससे हम परिचित हैं। आत्मज्ञान में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद नहीं है। इसीलिए उसे परमज्ञान कहा गया है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । फिर भी उसका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न रूप में होता है । पदार्थ-ज्ञान में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, आत्मज्ञान में विषय-विषयी का अभाव । पदार्थ ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते हैं लेकिन आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों अलग अलग नहीं रहते। इस ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही आत्मज्ञान है, यही परमार्थज्ञान है । लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐसा विषय और विषयी से अथवा ज्ञाता और ज्ञेय से रहित ज्ञान उपलब्ध कैसे हो ?
आत्मज्ञान की प्राथमिक विधि भेद-विज्ञान-यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेयरूप ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता, लेकिन अनात्म-तत्त्व तो ऐसा है जिसे ज्ञाता ज्ञेयरूप ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म या उसके ज्ञान के विषय क्या हैं । अनात्म के स्वरूप को जानकर उससे विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि के माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। सामान्य बुद्धि चाहे हमें यह न बता सके कि परमार्थ का स्वरूप क्या है, लेकिन वह यह तो सहज रूप में बता सकती है कि यह परमार्थ नहीं है । यह निषेधात्मक विधि ही परमार्थ बोध की एकमात्र पद्धति है, जिसके द्वारा सामान्य साधक परमार्थबोध की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में इस विधि का बहुलता से निर्देश १. आचारांग, १।५।६ २. मोक्खपाहुड, ६५
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