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________________ सम्यग्ज्ञान ७५ नहीं होती।' डा० राधाकृष्णन् भी आध्यात्मिक ज्ञान के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “(जब) वासनाएँ मर जाती हैं, तब मन में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न होती है जिससे आन्तरिक निःशब्दता पैदा होती है। इस निःशब्दता में अन्तर्दृष्टि ( आध्यात्मिक ज्ञान ) उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है जो कि वह तत्त्वतः है।" इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन ज्ञान के इस आध्यात्मिक स्तर पर ही ज्ञान की पूर्णता मानते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि इस ज्ञान की पूर्णता को कैसे प्राप्त किया जाये ? भारतीय आचार-दर्शन इस सन्दर्भ में जो मार्ग प्रस्तुत करते हैं उसे भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्म-विवेक कहा जा सकता है । यहाँ भेद-विज्ञान की प्रक्रिया पर किंचित् विचार करलेना उचित होगा। नैतिकजीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान-भारतीय नैतिक चिन्तन आत्म-जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। जब तक आत्म-जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती, तब तक नैतिक विकास की ओर अग्रसर ही नहीं हुआ जा सकता । जब तक बाह्य दृष्टि है और आत्म जिज्ञासा नहीं है, तब तक जैन-दर्शन के अनुसार नैतिक विकास सम्भव नहीं। आत्मा के सच्चे स्वरूप की प्रतीति होना ही नितांत आवश्यक है, यही सम्यग्ज्ञान है। ऋग्वेद का ऋषि इसी आत्म- जिज्ञासा की उत्कट वेदना से पुकार कर कहता है, “यह मैं कौन हूँ अथवा कैसा हूँ इसको मैं नहीं जानता।"3 प्रमुख जैनागम आचारांगसूत्र का प्रारम्भ भी आत्म-जिज्ञासा से होता है । उसमें कहा है कि अनेक मनुष्य यह नहीं जानते कि मैं कहाँ से आया हूँ ? मेरा भवान्तर होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से कहाँ जाऊँगा ? जैन-दर्शन का नैतिक आदर्श आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध करना है। नैतिकता आत्मोपलब्धि का प्रयास है और आत्म-ज्ञान नैतिक आदर्श के रूप में स्वस्वरूप (परमार्थ) का ही ज्ञान है, जो अपने आपको जान लेता है उसे सर्वविज्ञात हो जाता है। महावीर कहते हैं कि एक (आत्मा) को जानने पर सब जाना जाता है ।" उपनिषद् का ऋषि भी यही कहता है कि उस एक (आत्मन्) को विज्ञात कर लेने पर सब विज्ञात हो जाता है । जैन बौद्ध और गीता की विचारणाएँ इस विषय में एक मत हैं कि अनात्म में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का कारण है। वस्तुतः जो हमारा स्वरूप नहीं है उसे अपना मान लेना ही बन्धन है। इसीलिए नैतिक जीवन में स्वरूपबोध आवश्यक माना गया । स्वरूप-बोध जिस क्रिया से उपलब्ध होता है उसे जैन-दर्शन में भेदविज्ञान कहा गया है । आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि जो सिद्ध हुए हैं वे भेद-विज्ञान १. गीता, २।४४ २. भगवद्गीता (रा०), पृ० ५८ ३. ऋग्वेद, १११६४।३७ ४. आचारांग, १११११ ५. वही, १।३।४ ६. छान्दोग्योपनिषद्, ६।१।३ Jein Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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