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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सामान्य साधकों के लिए जैनाचार्यों ने ज्ञान की सम्यक्ता और असम्यक्ता का जो आधार प्रस्तुत किया, वह यह है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधर प्रणीत जैनागम यथार्थज्ञान है और शेष मिथ्याज्ञान है ।" यहाँ ज्ञान के सम्यक् या मिथ्या होने की कसौटी आप्तवचन है । जैनदृष्टि में आप्त वह है जो रागद्वेष से रहित वीतराग या अर्हत् है । नन्दीसूत्र में इसी आधार पर सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत का विवेचन हुआ है । लेकिन जैनागम ही सम्यग्ज्ञान है और शेष मिथ्याज्ञान है, यह कसौटी जैनाचार्यों ने मान्य नहीं रखी । उन्होंने स्पष्ट कहा है कि आगम या ग्रन्थ जो शब्दों के संयोग से निर्मित हुए हैं, वे अपने आपमें न तो सम्यक् हैं और न मिथ्या, उनका सम्यक् या मिथ्या होना तो अध्येता के दृष्टिकोण पर निर्भर है । एक यथार्थ दृष्टिकोण वाले ( सम्यक् दृष्टि) के लिए मिथ्या श्रुत (जैनेतर आगम ग्रन्थ) भी सम्यक् श्रुत है जब कि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्याश्रुत है । इस प्रकार अध्येता के दृष्टिकोण की विशुद्धता को भी ज्ञान के सम्यक् अथवा मिथ्या होने का आधार माना गया है। जैनाचार्यों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण शुद्ध है, सत्यान्वेषी है तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा; वह भो सम्यक् होगा । इसके विपरीत जिसका दृष्टिकोण दुराग्रह दुरभिनिवेश से युक्त है, जिसमें यथार्थ लक्ष्योन्मुखता और आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है ।
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ज्ञान के स्तर — 'स्व' के यथार्थ स्वरूप को जानना ज्ञान का कार्य है, लेकिन कौनसा ज्ञान स्व या आत्मा को जान सकता है, यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण है । भारतीय और पाश्चात्य चिन्तन में इस पर गहराई से विचार किया गया है। गीता में एक और बुद्धि ज्ञान और असम्मोह के नाम से ज्ञान की तीन कक्षाओं का विवेचन उपलब्ध है, तो दूसरी ओर सात्विक, राजस और तामम इस प्रकार से ज्ञान के तीन स्तरों का भी निर्देश है । * जैन - परम्परा में मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इस प्रकार से ज्ञान के पाँच स्तरों का विवेचन उपलब्ध है ।" दूसरी ओर अपेक्षाभेद से लौकिक प्रत्यक्ष ( इन्द्रियप्रत्यक्ष ) परोक्ष (बौद्धिकज्ञान और आगम) और अलौकिक प्रत्यक्ष (आत्म- प्रत्यक्ष ) ऐसे तीन स्तर भी माने जा सकते हैं । आचार्य हरिभद्र ने जैन-दृष्टि और गीता का समन्वय करते हुए इन्द्रियजन्य ज्ञान को बुद्धि, आगमज्ञान को ज्ञान और सदनुष्ठान ( अप्रमत्तता ) को सम्मोह कहा है । इतना ही नहीं, आचार्य ने उनमें बुद्धि ( इन्द्रियज्ञान) एवं बौद्धिकज्ञान की अपेक्षा ज्ञान ( आगम) और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह ( अप्रमत्तता ) की कक्षा ऊँची मानी है । बौद्ध दर्शन में भी इन्द्रियज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और लोकोत्तर ज्ञान ऐसे
१. अभिधान - राजेन्द्र खण्ड ७, पृ० ५१५
३. गीता, १०१४
५. तत्त्वार्थसूत्र, ११९
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२. वही, पृ० ५१४
४. वही, १८ १९
६. योगदृष्टिसमुच्चय ११९
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