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________________ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) जैन नैतिक साधना में ज्ञान का स्थान-अज्ञान दशा में विवेक-शक्ति का अभाव होता है और जबतक विवेकाभाव है, तब तक उचित और अनुचित का अन्तर ज्ञात नहीं होता। इसीलिए दशवकालिकसूत्र में कहा है भला, अज्ञानी मनुष्य क्या (साधना) करेगा? वह श्रेय (शुभ) और पाप (अशुभ) को कैसे जान सकेगा ? जैन-साधना-मार्ग में प्रविष्ट होने की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान का निराकरण कर सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करे । साधना-मार्ग के पथिक के लिए जैन ऋषियों का चिर-सन्देश है कि प्रथम ज्ञान और तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण; संयमी साधक की साधना का यही क्रम है। साधक के लिए स्व-परस्वरूप का भान, हेय और उपादेय का ज्ञान और शुभाशुभ का विवेक साधना के राजमार्ग पर बढ़ने के लिए आवश्यक है । उपर्युक्त ज्ञान की साधनात्मक जीवन के लिए क्या आवश्यकता है इसका क्रमिक और सुन्दर विवेचन दर्शवकालिकसूत्र में मिलता है । उसमें आचार्य लिखते हैं कि जो आत्मा और अनात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है ऐसा ज्ञानवान साधक साधना (संयम) के स्वरूप को भलीभांति जान लेता है, क्योंकि जो आत्मस्वरूप और जड़स्वरूप को यथार्थ रूपेण जानता है, वह सभी जीवात्माओं के संसार-परिभ्रमण रूप विविध (मानव-पशुआदि) गतियों को जान भी लेता है और जो इन विविध गतियों को जानता है, वह (इस परिभ्रमण के कारण रूप) पुण्य, पाप, बन्धन तथा मोक्ष के स्वरूप को भी जान लेता है। पुण्य, पाप, बंधन और मोक्ष के स्वरूप को जानने पर साधक भोगों की निस्सारता को समझ लेता है और उनसे विरक्त (आसक्त) हो जाता है । भोगों से विरक्त होने पर बाह्य और आन्तरिक सांसारिक संयोगों को छोड़कर मुनिचर्या धारण कर लेता है। तत्पश्चात् उत्कृष्ट संवर (वासनाओं के नियन्त्रण) से अनुत्तर धर्म का आस्वादन करता है, जिससे वह अज्ञानकालिमा-जन्य कर्म-मल को झाड़ देता है और केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर तदन्तर मुक्ति-लाभ कर लेता है । उत्तराध्ययनसूत्र में ज्ञान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि ज्ञान अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्ट कर सर्व तथ्यों (यथार्थता) को प्रकाशित करता है। सत्य के स्वरूप को समझने का एकमेव साधन ज्ञान ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, ज्ञान ही मनुष्य-जीवन का सार है। १. अन्नाणी किं काही किं वा नाहिइ छेय-पावगं ? दर्शवकालिक, ४।१० (उत्तरार्ध)। २. पढ़मं नाणं तओ दया एवं चिठ्ठइ सव्वसंजए । वही, ४।१० (पूर्वार्ध)। ३. वही, ४।१४-२७ । ४. उत्तराध्ययन, ३२। २ ५. दर्शनपाहुड, ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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