________________
सम्यग्दर्शन
६७
आवश्यक है | श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक माने गये हैं ।' गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की वर्णित है—- १. सात्विक, २. राजस और ३. तामस । सात्विक श्रद्धा सत्वगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है । राजस श्रद्धा यज्ञ और राक्षसों के प्रति होती है, इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है । तामस श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है । २
जैसे जैन दर्शन में संदेह सम्यग्दर्शन का दोष है, वैसे ही गीता में भी संशयात्मकता दोष है । जिस प्रकार जैन दर्शन में फलाकांक्षा सम्यग्दर्शन का अतिचार ( दोष ) मानी गई है, उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को नैतिक जीवन का दोष माना गया है। गीता के अनुसार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न कोटि का ही है । फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'जो लोग विवेक-ज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ देवताओं की शरण ग्रहण करते है, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं । लेकिन उन अल्प - बुद्धि लोगों का वह फल नाशवान् होता है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करनेवाला मुझे ही प्राप्त होता है |
गीता में श्रद्धा या भक्ति चार प्रकार की कही गई है - ( १ ) ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति - - परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है । (२) जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना, श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है । इसमें श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती, जब कि प्रथम स्थिति में होनेवाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है । संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है । जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है । अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है । ( ३ ) तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त-व्यक्ति की होती है । कठिनाई में फँसा व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबारने में असमर्थ पाता है और इसी दैन्यभाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थिर करता है, तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति ही होती है । श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है । (४) श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है । यहाँ श्रद्धा कुछ
१. गीता, १७।१३ ३. वही, १७१२-४
Jain Education International
२ . वही, ४४०
४. वही, ७।२०- २३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org