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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन को भी सुरभित करता है। साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत् के अन्य प्राणियों को धर्म-मार्ग की ओर आकर्षित करना ही प्रभावना है।' प्रभावना आठ प्रकार की है :--(१) प्रवचन, (२) धर्म-कथा, (३) वाद, (४) नैमित्तिक, (५) तप, (६) विद्या, (७) प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और (८) कवित्वशक्ति ।
सम्यग्दर्शन की साधना के छह स्थान-जिस प्रकार बौद्ध-साधना के अनुसार 'दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है' इन चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानकों ( छह बातों ) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है-(१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (१) मुक्ति का उपाय ( मार्ग ) है ।
जैन तत्त्व-विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर हैं; ये षट्स्थानक जैन-नैतिकता के केन्द्र बिन्दु हैं ।
बौद्ध-वर्शन में सम्यग्दर्शन का स्वरूप-बौद्ध-परम्परा में सम्यग्दर्शन के सामानार्थी सम्यग्दृष्टि, सम्यग्समाधि, श्रद्धा एवं चित्त शब्द मिलते हैं । बुद्ध ने अपने त्रिविध साधनामार्ग में कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त और प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा और प्रज्ञा का विवेचन किया हैं । बौद्ध-परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ में हुआ है । वस्तुतः श्रद्धा चित्त-विकल्प की शून्यता की ओर ही ले जाती है। श्रद्धा के उत्पन्न हो जाने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार समाधि की अवस्था में भी चित्त-विकल्पों की शून्यता होती है, अतः दोनों को एक ही माना जा सकता है। श्रद्धा और समाधि दोनों ही चित्त की अवस्थाएँ हैं, अतः उनके स्थान पर चित्त का प्रयोग भी किया गया है । क्योंकि चित्त की एकाग्रता ही समाधि है और चित्त की भावपूर्ण अवस्था ही श्रद्धा है। अतः चित्त, समाधि और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। यद्यपि अपेक्षा-भेद से इनके अर्थों में भिन्नता भी है। श्रद्धाबुद्ध, संघ और धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शान्त अवस्था है।
बौद्ध-परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थ-साम्य बहुत कुछ सम्यग्दृष्टि से है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन तत्त्व-श्रद्धा है उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दृष्टि चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन का अर्थ देव, १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३० २. आत्मा छे, ते नित्य छ, छे कर्ता निजकर्म ।
छ भोक्ता वणी मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म ।।-आत्मसिद्धिशास्त्र, पृष्ठ ४३
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