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________________ ८ - साम्यता है, उसे अभिव्यक्त करना है । अध्ययन की इस समन्वयात्मक दृष्टि के कारण ही मूलभूत दार्शनिक विरोध विवेचना की दृष्टि से उपेक्षित से रहे हैं । यद्यपि समालोच्य विचार परम्पराओं में दार्शनिक दृष्टि-भेद हैं, फिर भी उन विभिन्न आधारों पर निकाले गये नैतिक निष्कर्ष इतने समान हैं कि वे अध्येता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहते हैं । यही कारण था कि समन्वयात्मक दृष्टि से अध्ययन करने के लिए हमने इनकी तत्त्वमीमांसा के स्थान पर आचारमीमांसा का चयन किया है । क्योंकि यह एक ऐसा पक्ष है जहाँ तीनों धाराएँ एक दूसरे से मिलकर उस पवित्र त्रिवेणी संगम का निर्माण करती हैं जिसमें अवगाहन कर आज भी मानव जाति अपने चिर-संतापों से परिनिवृत हो शान्तिलाभ कर सकती है । अध्ययन दृष्टि के सम्बन्ध में एक बात और भी कह देना आवश्यक है वह यह कि समग्र अध्ययन में जैन आचार दर्शन को मुख्य भूमिका में एवं गीता और बौद्ध आचार दर्शन को परिपार्श्व में रखा गया है । अतः यह स्वाभाविक है कि बौद्ध एवं गीता के आचार दर्शन का विवेचन उतनी गहराई और विस्तार से न हो पाया है जितनी कि उनके बारे में स्वतन्त्र अध्ययन की दृष्टि से अपेक्षा की जा सकती है । लेकिन इसका कारण भी हमारी उपेक्षावृत्ति नहीं होकर अध्ययन की सीमा एवं दृष्टि ही है । विषय के चयन के सम्बन्ध में सम्भवतः यह प्रश्न उठता है कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों को ही क्यों चुना गया ? इस चयन के पीछे मुख्य दृष्टिकोण यह है कि भारत के सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण में जिन परम्पराओं का मौलिक योगदान रहा हो तथा जो आज भी जीवन्त परम्पराओं के रूप में भारतीय एवं अन्य देशों के जनजीवन पर अपना प्रभाव बनाये हुए हैं, उन्हें ही अध्ययन का विषय बनाया जाय। ताकि तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से उनकी आचार-निष्ठ एकरूपता को अभिव्यक्त किया जा सके, जो उन्हें एक दूसरे के निकट लाने में सहायक हो । प्राचीन काल की निवृत्ति प्रधान श्रमण और प्रवृत्ति प्रधान वैदिक परम्पराएँ ही भारतीय सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण करने वाली प्रमुख परम्पराएँ हैं । इन दोनों के पारस्परिक प्रभाव एवं समन्वय से ही वर्तमान भारतीय संस्कृति का विकास हुआ है । इनके पारस्परिक समन्वय ने निम्न तीन दिशाएँ ग्रहण की थी : १. समन्वय का एक रूप था जिसमें निवृत्ति प्रधान और प्रवृत्ति गौण थी । यह 'निवृत्यात्मक प्रवृत्ति' का मार्ग था । जीवन्त आचार दर्शनों के रूप में इसका प्रतिनिधित्व जैन परम्परा करती है । २. समन्वय का दूसरा रूप था जिसमें प्रवृत्ति प्रधान और निवृत्ति गौण थी । यह 'प्रवृत्यात्मक निवृत्ति' का मार्ग था, जिसका प्रतिनिधित्व गीता से प्रभावित वर्तमान हिन्दू परम्परा करती है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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