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भारतीय एवं पाश्चात्त्य दोनों प्रकार के विद्वानों द्वारा किया गया। जिन पाश्चात्य विचारकों ने भारतीय आचार दर्शन का समग्ररूप से तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन किया उनमें मेकेन्जी और हापकिन्स प्रमुख हैं । मेकेन्जी ने 'हिन्दू एथिक्स' तथा हापकिन्स ने 'दि एथिक्स आफ इण्डिया' नामक ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थकारों के दृष्टिकोण में भारतीय सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक व्यामोह का तो अभाव था लेकिन एक दूसरे प्रकार का व्यामोह था, और वह था ईसाई धर्म एवं पाश्चात्य विचार परम्परा की श्रेष्ठता का। दूसरे उपरोक्त विचारक भारतीय आचार परम्परा के स्रोत ग्रन्थों के इतने निकट नहीं थे, जितना उनका अध्येता एक भारतीय हो सकता था।
जिन भारतीय विचारकों ने इस सन्दर्भ में लिखा उनमें श्री शिवस्वामी अय्यर का 'दि इव्होल्यूशन आफ हिन्दू मारल आइडियल्स' नामक व्याख्यान ग्रंथ है, जिसमें भारतीय नैतिक-चिन्तना के आचार नियमों का सामान्य रूप में विवेचन है, किन्तु जैन और बौद्ध दृष्टिकोणों का इसमें अभाव-सा ही है। भारतीय आचार दर्शन के अन्य ग्रन्थों में सुश्री सूरमादास गुप्ता का 'दि डेव्हलपमेन्ट आफ मारल फिलासफी इन इण्डिया' नामक शोध प्रबन्ध उल्लेखनीय है । इसमें विभिन्न दर्शनों के नैतिक सिद्धान्तों का विवरणात्मक संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण है । लेखिका की दृष्टि में समालोचनात्मक और तुलनात्मक विवेचन अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है । एक अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ श्री सुशीलकुमार मैत्रा का ‘एथिक्स आफ दि हिन्दूज' है; इस ग्रंथ में विवेचन शैली की काफी नवीनता है और तुलनात्मक और समालोचनात्मक दृष्टिकोण का निर्वाह भी सन्तोषप्रद रूप में हुआ है। आदरणीय तिलकजी का गीता रहस्य यद्यपि गीता पर एक टीका है लेकिन उसके पूर्व भाग में उन्होंने भारतीय नैतिकता की जो व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं वे वस्तुतः सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं । हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश से प्रकाशित पद्मभूषण डॉ० भीखनलालजी आत्रेय का 'भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास' नामक विशालकाय ग्रंथ भी इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है, यद्यपि इसमें भी विद्वान् लेखक ने तुलनात्मक एवं समालोचनात्मक दृष्टि एवं सैद्धान्तिक विवेचना को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। ग्रन्थ के अधिकांश भाग में विभिन्न भारतीय विचारकों के नैतिक उपदेशों का संकलन है, फिर भी ग्रन्थ के अन्तिम भाग में विद्वान् लेखक द्वारा जो कुछ लिखा गया है वह युगीन सन्दर्भ में भारतीय नैतिकता को समझने का एक महत्त्वपूर्ण साधन अवश्य है । इसी प्रकार लन्दन से प्रकाशित (१९६५) श्री ईश्वरचन्द्र का 'इथिकल फिलासफी आफ इण्डिया' नामक ग्रंथ भी भारतीय नीतिशास्त्र के अध्ययन का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जा सकता है। लेकिन उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में भी तुलनात्मक दृष्टि का अधिक विकास नहीं देखा जाता है । जहाँ तक जैनाचार के विवेचन का प्रश्न है उसे इन समस्त ग्रंथों में सामान्यतया १५-२० पृष्ठों से अधिक का स्थान उपलब्ध होना सम्भव ही नहीं था। दूसरे जैन आचारदर्शन और बौद्ध आचारदर्शन में निहित समानताओं की चर्चा तो
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