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जैन आचारवर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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१२. स्त्यान (चित्त का तनाव), १३. मृद्ध (चैत्तसिकों का तनाव) और १४. विचिकित्सा (संशयालुपन)।
(स) कुशल चैत्तसिक-ये पच्चीस हैं-१. श्रद्धा, २. स्मृति (अप्रमत्तता), ३. पापकर्म के प्रति लज्जा, ४. पाप कर्म के प्रति भय, ५. अलोभ (त्यागभाव ) ६. अद्वष (मैत्री), ७. तत्र मध्यस्थता (अनासक्ति, उपेक्षा या समभाव), ८. काय-प्रश्रब्धि (प्रसन्नता) ९. चित्त-प्रश्रब्धि, १०, काय लघुता (अहंकार का अभाव), ११. चित्त-लघुता, १२. काय विनम्रता; १३. चित्त-विनम्रता, १४. काय-सरलता, १५. चित्त-सरलता, १६ कायकर्मण्यता, १७. चित्त-कर्मण्यता, १८. काय-प्रागुण्य (समर्थता) १९. चित्त-प्रागुण्य, २०. सम्यक्वाणी, २१. सम्यक्-कर्मण्यता (कर्मान्त), २२. सम्यक्-जीविका, २३. करुणा, २४. मुदिता और २५. प्रज्ञा ।
जैन-दर्शन में स्वीकृत लगभग सभी कर्मप्रेरक (संज्ञाएँ) बौद्ध-दर्शन के इस वर्गीकरण में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, वरन् बौद्ध-दर्शन उनका काफी गहन विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है, लेकिन मूलभूत धारणाओं के विषय में दोनों का दृष्टिकोण समान ही है ।
गीता में कर्म-प्रेरकों का वर्गीकरण-गीता में कर्म-प्रेरकों का विस्तृत वर्गीकरण उपलब्ध नहीं है । सामान्यतया गीता में काम और क्रोध, जिन्हें प्रकारान्तर से इच्छा और द्वेष भी कहा गया है, कर्म प्रेरक हैं । दूसरे दृष्टिकोण से गीता में सत्व, रज और तम ये तीन गुण और इनके कारण उत्पन्न होने वाली चित्त की संकल्पात्मक अवस्थाएँ भी कर्मप्रेरक मानी जा सकती है। गीता का यह विश्लेषण संक्षिप्त होते हुए भी मूलतः जैन और बौद्ध मन्तव्य के समान है ।
कामनाओं के विभिन्न प्रकारों के विश्लेषण के बाद भी यह प्रश्न रह जाता है कि चित्त में कामना कैसे उत्पन्न होती है और कैसे उसका विकास होता है ।
कामना का उद्भव एवं विकास-इन्द्रियों के माध्यम से चेतना का बाह्य विषयों से सम्पर्क होता है । गणधरवाद में कहा गया है कि जिस प्रकार देवदत्त अपने महल की खिड़कियों से बाह्य जगत् को देखता है उसी प्रकार प्राणी इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य पदार्थों से अपना सम्पर्क करता है।' कठोपनिषद् में कहा गया है कि इन्द्रियों को बहिर्मुख कर दिया गया है इसलिए जीव बाह्य विषयों की ओर ही देखता है, अन्तरात्मा को नहीं । इन्द्रियों के बहिर्मुख होने से जीव की रुचि बाह्य विषयों में होती है और इसी से उनको पाने की कामना और संकल्प का जन्म होता है । इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ विषय अनुकूल और कुछ विषय प्रतिकूल प्रतीत होते हैं । अनुकूल विषयों में पुनः-पुनः प्रवृत्त होना और प्रतिकूल विषयों से बचना, यही वासना है । अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति तथा प्रतिकूल विषय से निवृत्ति का विचार
१. गणधरवाद-वायुभूति से चर्चा,
२. कठोपनिषद्, २।१।१
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