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________________ ४४२ _ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन दर्शन का समाधान-जैन विचारकों ने इन आक्षेपों के प्रत्युत्तर में कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार भांग, शराब आदि नशीली जड़ वस्तुएँ उपभोग के पश्चात् एक निश्चित समय पर स्वतः अपने प्रभाव से चैतन्य को बिना उसकी इच्छा की अपेक्षा किए, प्रभावित करती हैं, उसी प्रकार जड़ कर्म भी स्वतः ही अपना फल प्रदान करते हैं । श्रीमद् राजचन्द्र भाई लिखते हैं झेर सुघासमजे नहीं, जीव खाय फल थाय । एम शुभाशुभ कर्म नो, भोक्तापणुं जणाय ।। अर्थात् जैसे विष खाने वाला उसके प्रभाव से बच नहीं सकता, वैसे ही कर्मों का कर्ता भी उनके प्रभाव से नहीं बच सकता। गीता का दृष्टिकोण-गीता में फल-प्रदाता के रूप में तो नहीं, लेकिन कर्म नियम के व्यवस्थापक अथवा कर्मों के फल का निश्चय करने वाले के रूप में ईश्वर को स्वीकार किया गया है। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि "मैं जिसका निश्चय कर दिया करता हूँ वह इच्छित फल मनुष्य को मिलता है।" यह माना जा सकता है कि कर्मों में स्वतः फल देने की क्षमता गीताकार को स्वीकार है। इस सम्बन्ध में गीता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लोकमान्य तिलक लिखते हैं कि कर्म का चक्र जब एक बार आरम्भ हो जाता है तब उसे ईश्वर भी नहीं रोक सकता। कर्मफल निश्चित कर देने का काम यद्यपि ईश्वर का है, तथापि वेदान्त-शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि वे फल हर एक के खरे-खोटे कर्मों की अर्थात् कर्म अकर्म की योग्यता के अनुसार दिये जाते है । इसलिए परमेश्वर इस सम्बन्ध में वस्तुतः उदासीन ही है-“कर्म के भावी परिणाम या फल केवल कर्म के नियमों से ही उत्पन्न हुआ करते हैं।" इन शब्दों का गहन विश्लेषण हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि गीताकार की दृष्टि में कर्म स्वतः अपना फल देने की सामर्थ्य से युक्त है, गीता के अनुसार ईश्वर ने तो केवल यह निश्चय कर दिया है कि किस कर्म का क्या फल होगा। दूसरे शब्दों में ईश्वर मात्र कर्म-नियम का निर्माता है, कर्मफल प्रदाता नहीं; लेकिन तार्किक दृष्टि से देखें तो यह धारणा भी अधिक सबल नहीं, क्योंकि जो कर्मफल-निश्चय का कार्य गीताकार ईश्वर से कराता है वह कर्मफल-निश्चय का कार्य कर्मों की प्रकृति ( स्वभाव) स्वतः भी कर सकती है । यह कहने की अपेक्षा कि ईश्वर ने शुभ का प्रतिफल शुभ और और अशुभ का प्रतिफल अशुभ निश्चित किया है, यह कहना अधिक उचित है कि स्वभावतः शुभ से शुभ और अशुभ से अशुभ की निष्पत्ति होती है । गीताकार स्वयं एक स्थान पर स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि "कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग १. आत्मसिद्धिशास्त्र, ८३ २. गीता, ७।२२ ३. गीतारहस्य, पृ० २६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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