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________________ ४०६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है ।" विकासवादियों ने इसे ही 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' कहा है । वस्तुतः उसे 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' की अपेक्षा 'समत्व के संस्थापन का प्रयास' कहना अधिक उचित है। "समत्व का संस्थापन, सन्तुलन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है ।" जहाँ भी जीवन है, यह प्रक्रिया अविराम गति से चल रही है । जीवन का अर्थ है समायोजन या सन्तुलन का प्रयास । दूसरे शब्दों में समायोजन और सन्तुलन के प्रयासों की उपस्थिति ही जीवन है, उनका अभाव ही जीवन का अभाव है, मृत्यु है । मृत्यु और कुछ नहीं, मात्र सन्तुलन बनाने की प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है। इस प्रकर जैविक दृष्टि से जीवन सन्तुलन-शक्ति है, समत्व के संस्थापन की प्रक्रिया है । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है, न मृत्यु । एक उसका प्रारम्भ बिन्दु है, दूसरा उसके अभाव की उद्घोषणा करने वाला। जीवन इन दोनों से ऊपर है। जन्म और मृत्यु तो एक शरीर में उसके आगमन और चले जाने की सूचनाएँ भर हैं, वह इनसे अप्रभावित है। जीवन तो जागृति है, चेतना है । वैयक्तिक दृष्टि से इसे ही जीव कहते हैं और यही आत्मा है । यदि उपर्युक्त दोनों ही दृष्टिकोणों के आधार पर जीवन की एक समुचित परिभाषा देने का प्रयास किया जाय तो कह सकते हैं कि जीवन चेतन तत्त्वकी सन्तुलन-शक्ति है। चेतना जीवन है और जीवन का कार्य है समत्व का संस्थापन । अतः सिद्ध यह हुआ कि समत्व का संस्थापन चेतना का कार्य है । दूसरे शब्दों में समत्व में स्थित रहना ही चेतना का स्वाभाविक गुण है, जो चेतना का आदर्श और जीवन को प्रक्रिया का चरम लक्ष्य हो सकता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चेतन-जीवन का विश्लेषण करने पर हमें उसके तीन पक्ष ज्ञान, अनुभूति और संकल्प मिलते हैं। चेतना को इन तीन पक्षों से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन जीवन का प्रयास ज्ञान, अनुभूति और संकल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है । संक्षेप में जीवन-प्रक्रिया समत्व के संस्थापन का प्रयत्न करते हुए चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्षों का पूर्णता की दिशा में विकास का प्रयास है । इस प्रकार जीवन-प्रक्रिया को जान लेने पर यह विचार आवश्यक है कि हमारे नैतिक जीवन का साध्य क्या हो सकता है ? १. फर्स्ट प्रिन्सपल्सः स्पेन्सर, पृ० ६६ २. Idealistic view of life, पृ० १९७ ३. फाइव टाइप्स आफ एथिकल थ्योरीज़, पृ० १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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