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________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया हँसता है । ७. जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना अनाचार छिपाता है। ८. जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर कलंक लगाता है । ९. जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र भाषा बोलता है । १०. जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा उन्हें मार्मिक वचनों से झेंपा देता है। ११. जो स्त्री में आसक्त व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। १२. जो अत्यन्त कामुक व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। १३. जो चापलूसी करके अपने स्वामी को उगता है। १४. जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना है वह ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। १५. जो अपने उपकारी की हत्या करता है। १६. जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या करता है। १७. जो प्रमुख पुरुष की हत्या करता है। १८. जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। १९. जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। २०. जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है। २१. जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु की निन्दा करता है। २२. जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय करता है । २३. जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आपको बहुश्रुत कहता है । २४. जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको तपस्वी कहता है। २५. जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता । २६. जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररूपण करते हैं। २७. जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते हैं । २८. जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करता है । २९. जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। ३०. जो असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है। (अ) दर्शन-मोह-जैन-दर्शन में दर्शन शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-१. प्रत्यक्षीकरण, २. दृष्टिकोण और ३. श्रद्धा । प्रथम अर्थ का सम्बन्ध दर्शनावरणीय कर्म से है, जबकि दूसरे और तीसरे अर्थ का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। दर्शनमोह के कारण प्राणी में सम्यक दृष्टिकोण का अभाव होता है और वह मिथ्या धारणाओं एवं विचारों का शिकार रहता है, उसकी विवेकबुद्धि असंतुलित होती है । दर्शनमोह तीन प्रकार का है-१. मिथ्यात्व मोह-जिसके कारण प्राणी असत्य को सत्य तथा सत्य को असत्य समझता है। शुभ को अशुभ और अशुभ को शुभ मानना मिथ्यात्व मोह है । २. सम्यक्-मिथ्यात्व मोह—सत्य एवं असत्य तथा शुभ एवं अशुभ के सम्बन्ध में अनिश्चयात्मकता और ३. सम्यक्त्व मोह-क्षयिक सम्यक्त्व की उपलब्धि में बाधक सम्यक्त्व मोह है' अर्थात् दृष्टिकोण की आंशिक विशुद्धता । . (ब) चारित्र-मोह-~-चारित्र-मोह के कारण प्राणी का आचरण अशुभ होता है। चारित्र-मोहजनित अशुभाचरण २५ प्रकार का है...---१. प्रबलतम क्रोध, १. तत्त्वार्थसूत्र, ८।१०. २. वही, ८.१०. .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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