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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
२. अधिकरणिका क्रिया-घातक अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली हिंसादि की क्रिया । इसे प्रयोग क्रिया भी कहते हैं ।
___३. प्राद्वेषिकी क्रिया-द्वेष, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि से युक्त होकर की जानेवाली 'क्रिया।
४. पारितापनिकी-ताड़ना, तर्जना आदि के द्वारा दुःख देना। यह दो प्रकार की है-१. स्वयं को कष्ट देना और २. दूसरे को कष्ट देना। जो विचारक जैन दर्शन को कायाक्लेश का समर्थक मानते हैं उन्हें यहाँ एक बार पुनः विचार करना चाहिए । यदि उसका मन्तव्य कायाक्लेश का होता तो जैन दर्शन स्व-पारितापनिकी क्रिया को पाप के आगमन का कारण नहीं मानता।
५. प्राणातिपातकी क्रिया-हिंसा करना। इसके भी दो भेद हैं-१. स्वप्राणातिपातकी क्रिया अर्थात् राग-द्वेष एवं कषायों के वशीभूत होकर आत्म के स्वस्वभाव का घात करना तथा २. परप्राणातिपातकी क्रिया अर्थात् कषायवश दूसरे प्राणियों की हिंसा करना।
६. आरम्भ क्रिया-जड़ एवं चेतन वस्तुओं का विनाश करना । ७. पारिग्राहिकी क्रिया-जड़ पदार्थों एवं चेतन प्राणियों का संग्रह करना । ८. माया क्रिया-कपट करना ।
९. राग क्रिया-आसक्ति करना। यह क्रिया मानसिक प्रकृति की है इसे प्रेम अत्ययिकी क्रिया भी कहते हैं ।
१०. द्वेष क्रिया-द्वेष-वृत्ति से कार्य करना।
११. अप्रत्याख्यान क्रिया-असंयम या अविरति की दशा में होनेवाला कर्म अप्रत्याख्यान क्रिया है ।
१२. मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यादृष्टित्व से युक्त होना एवं उसके अनुसार क्रिया करना।
१३. दृष्टिजा क्रिया-देखने की क्रिया एवं तज्जनित राग-द्वेषादि भावरूप क्रिया।
१४. स्पर्शन क्रिया स्पर्श सम्बन्धी क्रिया एवं तज्जनित राग-द्वेषादि भाव । इसे 'पृष्टिजा क्रिया भी कहते है।
१५. प्रातीत्यकी क्रिया-जड़ पदार्थ एवं चेतन वस्तुओं के बाह्य संयोग या आश्रय से उत्पन्न रागादि भाव एवं तज्जनित क्रिया ।
१६. सामन्त क्रिया-स्वयं के जड़ पदार्थ की भौतिक सम्पदा तथा चेतन प्राणिज सम्पदा; जैसे पत्नियाँ, दास, दासी, अथवा पशु पक्षी इत्यादि को देखकर लोगों के द्वारा की हुई प्रशंसा से हर्षित होना। दूसरे शब्दों में लोगों के द्वारा स्वप्रशंसा की अपेक्षा करना । सामन्तवाद का मूल आधार यही है ।
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