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________________ कर्म का अशुमत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व कहते हैं, चाहे हम अच्छी इच्छाओं के बन्धन में बंधे हों या बुरी इच्छाओं के, बन्धन तो दोना ही है। इससे क्या अन्तर पड़ता है कि जिन जंजीरों में हम बँधे हैं वे सोने की है या लोहे की। जैन दर्शन के समान गीता भी यही कहती है कि जब पुण्य कर्मों के सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाता है, तब वह पुरुष राग-द्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर दृढ़ निश्चयपूर्वक मेरी भक्ति करता है । इस प्रकार गीता भी नैतिक जीवन के लिए अशुभ से शुभ कर्म की ओर और शुभ कर्म से शुद्ध या निष्काम कम की ओर बढ़ने का सकेत देती है। गीता का अन्तिम लक्ष्य भी शुभाशुभ से ऊपर निकाम जीवन-दृष्टि का निर्माण है। पाश्चात्य दृष्टिकोण अनेक पाश्चात्य विचारकों ने नैतिक जीवन की पूर्णता के लिए शुभाशुभ से परे जाना आवश्यक माना है। ब्रेडले का कहना है कि नैतिकता हमें शुभाशुभ से परे ले जाती है। नैतिक जीवन के क्षेत्र में शुभ और अशुभ का विरोध बना रहता है, लेकिन आत्म-पूर्णता को अवस्था में यह विरोध नहीं रहना चाहिए । अतः पूर्ण आत्मसाक्षात्कार के लिए हमें नैतिकता ( शुभाशुभ ) के क्षेत्र से ऊपर उठना होगा। ब्रेडले ने नैतिकता के क्षेत्र से ऊपर धर्म ( आध्यात्म ) का क्षेत्र माना है। उसके अनुसार, नैतिकता का अन्त धर्म में होता है, जहाँ व्यक्ति शुभाशुभ के द्वंद्व से ऊपर उठकर हेश्वर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वे लिखते हैं कि अन्त में हम ऐसे स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहां प्रक्रिया का अन्त होता है, यद्यपि सर्वोत्तम क्रिया सर्वप्रथम यहाँ से ही आरम्भ होती है। यहाँ पर हमारी नैतिकता ईश्वर से तादात्म्य में चरम अवस्था में फलित होती है और सर्वत्र हम उस अमर प्रेम को देखते हैं, जो सदैव विरोधाभास पर विकसित होता है, किन्तु जिसमें विरोधाभास का सदा के लिए अन्त हो जाता है । ब्रेडले ने नैतिकता और धर्म में जो भेद किया, वैसा ही भेद भारतीय दर्शनों ने व्यावहारिक नैतिकता और पारमार्थिक नैतिकता में किया है। व्यावहारिक नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है। यहाँ आचरण की दृष्टि समाज-सापेक्ष होती है और लोक-मंगल हो उसका साध्य है। पारमार्थिक नैतिकता का क्षेत्र शुद्ध चेतना ( अनासक्त या वीतराग जावन दृष्टि है, यह व्यक्ति-सापेक्ष है । व्यक्ति को बन्धन से बचाकर मुक्ति की ओर ले जाना ही इसका अन्तिम साध्य है। ६७. शुद्ध कर्म ( अकर्म) शुद्ध कर्म वह जीवन-व्यवहार है जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित होती हैं तथा जो आत्मा को बन्धन में नहीं डालतीं । अबन्धक कर्म ही शुद्ध कर्म है। जैन, बौद्ध और १. भगवद्गीता ( र,०), पृ० ५६. २. गोता, ७४२८. ३. ए थकल स्टडीज, पृ० ३१४. ४. वही, पृ० ३४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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