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कर्म का अशुभाव, शुभत्व एवं शुद्धत्व
८. कायपुण्य-रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना । ९. नमस्कारपुण्य-गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिवादन
करना। बौद्ध आचारदर्शन में भी पुण्य के इस दानात्मक स्वरूप की चर्चा मिलती है। संयुक्तनिकाय में कहा गया है, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन एवं चादर के दानी पण्डित पुरुष में पुण्य की धाराएँ आ गिरती हैं। अभिधम्मत्थसंगहो में (१) श्रद्धा, (२) अप्रमत्तता ( स्मृति ), (३) पाप कर्म के प्रति लज्जा, (४) पाप कर्म के प्रति भय, (५) अलोभ ( त्याग), (६) अद्वैष ( मैत्री), (७) समभाव, (८) मन की पवित्रता शरीर की प्रसन्नता, (१०) मन का हलकापन, (११) शरीर का हलकापन, मन की मृदुता, (१२) शरीर की मृदुता, (१३) मन की सरलता, शरीर की सरलता आदि को भी कुशल चैतसिक कहा गया है।'
जैन और बौद्ध दर्शन में पुण्य विषयक विशेष अन्तर यह है कि जैन दर्शन में संवर, निर्जरा और पुण्य में अन्तर किया गया है, किन्तु बौद्ध दर्शन में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं है। जैनाचारदर्शन में सम्यकदर्शन ( श्रद्धा ), सम्यज्ञान (प्रज्ञा ) और सम्यक्चारित्र ( शील) संवर और निर्जरा के अन्तर्गत हैं और बौद्ध आचारदर्शन में धर्म, संघ और बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धा, शील और प्रज्ञा पुण्य ( कुशल कर्म ) के अन्तर्गत है । ६४. पुण्य और पाप ( शुभ और अशुभ ) को कसौटी
शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं-(१) कर्म का बाह्य स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और (२) कर्ता का अभिप्राय । इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है, यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया । गीता स्पष्टरूप से कहती है कि जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निलिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डाले तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन को प्राप्त होता है ।२ धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है ( नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त ) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है । बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण सूत्रकृतांगसूत्र के आर्द्रक सम्वाद में भी मिलता है। जहां तक जैन मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्भ की शुभाशुभता का
१. अमिधम्मत्थसंगहो,चैतसिक विभाग. २. गीता, १८१७. ३. धम्मपद, २४६. ४. सत्रकृतांग, २।६।२७-४२.
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