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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
६१. तीन प्रकार के कर्म
जैन दृष्टि से 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति ठीक है, लेकिन जैन दर्शन में सभी कर्म अथवा क्रियाएँ समान रूप से बन्धनकारक नहीं हैं। उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये है-एक को कर्म कहा गया है, दूसरे को अकर्म । समस्त साम्परायिक क्रियाएँ कर्म की कोटि में आती हैं और ईर्यापथिक क्रियाएँ अकर्म की कोटि में आती हैं। नैतिक दर्शन की दृष्टि से प्रथम प्रकार के कर्म ही नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं और दूसरे प्रकार के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं। उन्हें अतिनैतिक कहा जा सकता है । लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आनेवाले सभी कर्म भी एकसमान नहीं होते हैं। उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य-कर्म और पाप-कर्म कहा जाता है । इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं-(१) ईर्यापथिक कर्म ( अकर्म) (२) पुण्य-कर्म और (३) पाप-कर्म । बौद्ध दर्शन में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं-(१) अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म (२) कुशल या शुक्ल कर्भ और (३) अकुशल या कृष्ण कर्म । गीता में भी तीन प्रकार के कर्म निरूपित हैं-(१) अकर्म (२) कर्म (कुशल कर्म) और (३) विकर्म (अकुशल कर्म)। जैन दर्शन का ईपिथिक कर्म, बौद्ध दर्शन का अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म तथा गीता का अकर्म समान है। इसी प्रकार जैन दर्शन का पुण्य कर्म, बौद्ध दर्शन का कुशल (शुक्ल) कर्म तथा गीता का सकाम सात्विक कर्म भी समान है । जैन दर्शन का पाप कर्म बौद्ध दर्शन का अकुशल (कृष्ण) कर्म तथा गीता का विकर्म है ।
पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से भी कर्म तीन प्रकार के हैं-(१) अतिनैतिक (२) नैतिक और (३) अनैतिक । जैन दर्शन का ईर्यापथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है. पुण्य कर्म नैतिक कर्म है, और पापकर्म अनैतिक कर्म है। गीता का अकर्म अतिनैतिक शुभ कर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्ध दर्शन में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्त कर्म अथवा कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहा गया है। इन्हें निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है :कर्म पाश्चात्य आचारदर्शन जैन
बौद्ध
गीता १. शुद्ध अतिनैतिक कर्म ई-पथिक कर्म अव्यक्त कर्म अकर्म २. शुभ नैतिक कर्म पुण्य कर्म कुशल (शुक्ल)कर्म कर्म ३. अशुभ अनैतिक कर्म पाप-कम
अकुशल (कृष्ण) कर्म विकम
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