SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वस्तुतः मेकेंजी का यह आक्षेप कर्म-सिद्धान्त पर न होकर मात्र प्राच्य और पाश्चात्य आचारदर्शन के अन्तर को स्पष्ट करता है । पाश्चात्य विचारणा में अनेक प्रकार के धार्मिक क्रिया-कर्मों, निषेधात्मक एवं वैयक्तिक सद्गुणों-जैसे उपवास, ध्यानादि तथा पश जगत् में प्रदर्शित सहानुभूति एवं करुणा को नैतिक दृष्टि से शुभाशुभ नहीं माना गया है। लेकिन दृष्टिकोण का भेद है। क्योंकि पाश्चात्य आचार दर्शन नीतिशास्त्र को मानव समाज के पारस्परिक व्यवहारों तक सीमित करता है, अतः यह दष्टिभेद स्वाभाविक है। भारतीय चिन्तन का आचारदर्शन के प्रति व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण इन्हें नैतिक मूल्य प्रदान कर देता है। २. मैकेंजी का दूसरा आक्षेप यह है कि कर्म-सिद्धान्त के अनुसार पुरस्कार और दण्ड दो बार दिये जाते हैं। एक बार स्वर्ग और नरक में, और दूसरी बार भावी जन्म में ।' मैकेंजी का यह आक्षेप परलोक की धारणा को नहीं समझ पाने के कारण है। भावी जन्म में स्वर्ग और नरक के जीवन भी सम्मिलित हैं। कोई भी कर्म केवल एक ही बार अपना फल प्रदान करता है। या तो वह अपना फल स्वर्गीय जीवन में देया नारकीय जीवन में अथवा इसी लोक में मानवीय एवं पाशविक जीवनों में । ३. कर्म-सिद्धान्त ईश्वरीय कृपा के विचार के विरोध में जाता है। जहाँतक मेकेंजी के इस आक्षेप का प्रश्न है, जैन और बौद्ध दृष्टिकोण निश्चित रूप से अपने कर्म-सिद्धान्त की धारणा में ईश्वरीय कृपा को कोई स्थान नहीं देते हैं । जैनदर्शन के अनुसार व्यक्ति स्वयं ही अपने विकास और पतन का कारण बनता है, अतः उसके लिए ईश्वरीय कृपा का कोई अर्थ नहीं है। गीता में ईश्वरीय कृपा का स्थान है, लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि ईश्वर कर्म-नियम के अनुसार ही व्यवहार करता है। यह सत्य है कि कर्म-सिद्धान्त और ईश्वरीय कृपा ये दो धारणाएँ एक-दूसरे के विरोध में जाती है, लेकिन गीता के अनुसार यह मान लिया जाय कि ईश्वर कर्म-नियम के अनुसार शासन करता है, तो दोनों धारणाओं में कोई विरोध नहीं रह जाता है । कर्म-सिद्धान्त किसी ईश्वर की कृपा की भीख की अपेक्षा आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाता है । ४. कर्म-सिद्धान्त में लोकहित के लिए उठाये गये कष्ट और पीड़ा की प्रशंसा निरर्थक है।3 इस आक्षेप से मेकेंजी का तात्पर्य यह है कि यदि कर्म-सिद्धान्त में निष्ठा रखनेवाला व्यक्ति लोकहित के कार्य करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह वस्तुतः लोकहित नहीं वरन् स्वहित ही कर रहा है । उसके द्वारा किये गये लोकहित के कार्यों का प्रतिफल उसे मिलनेवाला है । कर्म-सिद्धान्त के १. हिन्द एथिक्स पृ० २२०. २. वही, पृ० २२३. १. वही, पृ० २२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy