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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन फल देनेवाला है लेकिन जिसका फल-भोग आवश्यक है। (४) अनियतवेदनीय अनियतविपाक कर्म अर्थात् जो अनुभूति और विपाक दानों दृष्टियों से अनियत है । इस प्रकार बौद्ध विचारक न केवल कर्मों के विपाक में नियतता और अनियतता को स्वीकार करते हैं, वरन् दोनों की विस्तृत व्याख्या भी करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि कौन कर्म नियतविपाको होगा-प्रथमतः वे कर्म जो केवल कृत नहीं किन्तु उपचित भी हैं नियतविपाक कर्म हैं। कर्म के उपचित होने का मतलब है कर्म का चैतसिक के साथ-साथ भौतिक दृष्टि से भी परिसमाप्त होना । दूसरे, वे कर्म जो तीव्र प्रसाद ( श्रद्धा ) और तीव्र क्लेश ( राग-द्वेष ) से किये जाते हैं, नियतविपाक कर्म हैं । बौद्ध दर्शन की यह धारणा जैन दर्शन से बहुत कुछ मिलती है, लेकिन प्रमुख अन्तर यही है कि जहाँ बौद्ध दर्शन तीव्र श्रद्धा और तीव्र राग-द्वेष दोनों अवस्था में होनेवाले कर्म को नियतविपाकी मानता है, वहाँ जैन दर्शन मात्र राग-द्वेष ( कषाय ) की अवस्या में किये हुए कर्मों को ही नियतविपाकी मानता है। तीव्र श्रद्धा की अवस्था में किए गये कर्म जैन दर्शन के अनुसार नियतविपाकी नहीं हैं । हाँ, यदि तीव्र श्रद्धा के साथ प्रशस्त राग होता है तो शुभ कर्म बन्ध तो होता है लेकिन वह नियतविपाकी ही हो, यह अनिवार्य नहीं है । दोनों ही इस बात में सहमत हैं कि मातृवध, पितृवध तथा धर्म, संघ और तीर्थ तथा धर्मप्रवर्तक के प्रति किये गये अपराध नियतविपाकी होते हैं। गीता का दृष्टिकोण वैदिक परम्परा में यह माना गया है कि संचित कर्म को ज्ञान के द्वारा बिना फलभोग के ही नष्ट किया जा सकता है । इस प्रकार वैदिक परम्परा कर्मविपाक की अनियतता को स्वीकार कर लेती है। ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है।' अर्थात ज्ञान के द्वारा संचित कर्मों को नष्ट किया जा सकता है, यद्यपि वैदिक परम्परा में आरब्ध कर्मों का भोग अनिवार्य माना गया है । इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्म विपाक की नियतता और अनियतता दोनों स्वीकार की गई है । फिर भी उसमें संचित कर्मों की दष्टि से नियतविपाक का विचार नहीं मिलता। सभी संचित कर्म अनियतविपाको मान लिये गये हैं। निष्कर्ष वस्तुतः कर्म-सिद्धान्त में कर्मविपाक की नियतता और अनियतता की दोनों विरोधी धारणाओं के समन्वय के अभाव में नैतिक जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं होती है। यदि एकान्त रूप से कर्म-विपाक की नियतता को स्वीकार किया जाता है तो नैतिक आचरण का चाहे निषेधात्मक कुछ मूल्य बना रहे, लेकिन उसका विधायक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाता है। नियत भविष्य के बदलने की सामर्थ्य नैतिक जीवन में नहीं रह पाती है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णतः अनियतविपाकी माना जावे तो १. ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते-गीता, ४।३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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